Thursday, April 9, 2009
बिल्कुल सही निशाने पर लगा जरनैल का जूता !
जी हां, ये वोटतंत्र है। भीड़तंत्र का संवैधानिक ढ़ांचा। जिसमें जरनैल सिंह जैसा एक पत्रकार वक्त की नजाकत बखूबी समझता है। उसे मालूम है, वोटतंत्र की व्यवस्था में वो गुनहगार बाद में होगा.....पहले तो वो एक वोट है...वो भी बेशकीमती वोट क्योंकि वो दिल्ली में रहता है, जो एकमात्र ऐसा इलाका है... जहां देश की सबसे बड़ी... पुरानी और गैर सांप्रदायिक पार्टी ‘गिल्टी कॉन्शस’ के भंवर में डूबती उतराती नजर आती है। ये बताने की जरुरत नहीं कि कांग्रेस सिख वोटरों की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहती, लिहाजा उसने अपने सिपहसालारों (टाइटलर और सज्जन कुमार) को ठिकाने लगाना ज्यादा बेहतर समझा।
मगर इन सबके बीच...बड़ा सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है। चुनाव के माहौल में तमाम मजबूरियों और आशंकाओं तले दबी पार्टी बेशक जरनैल सिंह को माफ कर दे। लेकिन क्या सचमुच वो माफी के लायक है ? जरनैल सिंह जो देश के गृहमंत्री पर जूता उछालकर रातोंरात 84 के दंगा पीड़ितों के लिए हीरो बन जाता है। क्या सचमुच उसने जो कुछ किया वो माफी के लायक है?
यहां सवाल 84 के दंगों की जांच में सरकार की संदिग्ध भूमिका का नहीं है..यहां सवाल उस जमात का भी नहीं है...जिसकी तकलीफें आज तक जस की तस हैं...यहां सवाल उन मांओं... उन पिताओं और उन बहनों का भी नहीं है...जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े खोए। यहां सवाल उस सिख समुदाय का भी नहीं है जो अपने साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ बराबर आवाज बुलंद करता रहा है...और आज भी कर रहा है। यहां अहम सवाल है...लोकतंत्र की आड़ में अपनी जड़ें जमा रहे भीड़तंत्र का...। जो आज देश की कानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है।
ये बताने की जरुरत नहीं कि अगर पी चिदंबरम पर जूता उछालने वाला पत्रकार सिख की बजाए किसी और मजहब से होता तो शायद कांग्रेस और इस मुल्क का कानून उसे कभी माफ नहीं कर पाता। लेकिन अहम सवाल ये है..आखिर इस सरकार को किसने ये हक दिया कि वो देश की कानून व्यवस्था का माखौल उड़ाने वालों को महज इस बिना पर बख्श दे कि वो उसके राज काज के आड़े आ सकता है। जरनैल सिंह ने क्या सोचकर ऐसा किया...ये तो वही बेहतर जानता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उसका वो जूता ‘पी चिदंबरम’ नहीं देश के ‘लोकतंत्र’ को निशाना बना गया... जहां वोटतंत्र के तौर पर अभयदान पा रहा भीड़तंत्र मुल्क की संवैधानिक अस्मिता का सरेआम चीरहरण कर रहा है... मगर कानून खामोश है...क्योंकि वो उन चंद लोमड़ीछाप नेताओं की हाथ का खिलौना बन गया है.....जिन्हें मुल्क से पहले अपनी कुर्सी याद आती है...। ऐसा लगा जरुर कि जरनैल के जूते का निशाना चूक गया...लेकिन ऐसा नहीं है...उसके निशाने पर मौकापरस्ती की राजनीति का वो चेहरा था...जो कुर्सी के लिए जूते खाने को भी तैयार रहता है... और आखिरकार वही हुआ।
Saturday, November 29, 2008
सामूहिक बलात्कार का हलफनामा...!
Scene-1
ताज से धुआं निकल रहा है-
गोलियों की गड़गड़ाहट में-
उत्तेजना का संगीत कौंध रहा है-
कैमरों की निगाह से कुछ भी-
कहीं भी बच नहीं सकता-
पुलिस, सेना और पत्रकार-
एकदम मुस्तैद...चौकस खड़े हैं-
जान जोखिम में डालकर-
बहुतों के सीने गर्व से फूले हुए हैं-
शायद चार या पांच इंच तक-
Scene-2
जिंदा बच गए लोग-
अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं-
हाय..! उन्हीं की लकीरों में लिखा था-
उन कायरों के सीने पर लटकना-
चमचमाता तमगा बनकर-
उन्हीं को देना था इकबालिया बयान-
देश की आर्थिक राजधानी के-
सामूहिक बलात्कार का।
उन्हें अपनी जिंदगी पर तरस आ रहा है-
मगर वो करते भी तो क्या-
मंदी के इस दौर में उनका बचना जरुरी था।
Scene-3
उधर मां के दूध से महरुम रहे कुछ हिजड़े -
मजबूर शिखंडियों की आड़ में-
एके 47 से आतिशबाजी में मशगूल हैं-
वो जानते हैं, खुदा उन्हें माफ कर देगा-
क्योंकि दुनिया में जेहाद जरुरी है-
और खून खराबा उनकी मजबूरी है-
Scene-4
वो देखो....उधर उस नरीमन हाउस को-
आखिरकार 41 घंटे में एक खंडहर-
आबाद हो गया है...काली वर्दी वालों से-
क्योंकि मातम का वक्त नहीं है-
इसलिए लाशों की गिनती जरुरी है-
Scene-5
एक लिजलिजा शेर भिनभिना रहा है-
कोतवाल भी अबकी सावधान है-
सूट बदलने का शौक नहीं फरमा सका-
सफेद कोट पहनी तो पहनी-
दिल्ली काफी दूर थी-
सो कालिख से काम चला लिया।
Scene-6
दुशासन को न्यौता भेजा है-
आखिर जांच तो होनी है-
भला उससे बेहतर कौन बता पाएगा-
अभी कितनी साड़ी बाकी है-
Scene-7
चुनावी मौसम में-
कुछ सफेदपोश भेड़िये तो दिख गए-
पर, अभी तक धरतीपुत्र नजर नहीं आया-
शायद वो गिनने में जुटा है-
मारे गए लोगों में भइया लोग कितने हैं-
और बचाने वालों में मराठी कितने-
Scene-8
खैर, तमाशा खत्म होने को है-
और मैं परेशान हूं, हमेशा की तरह-
आखिर, अब क्या रह गया-
टीआरपी के तराजू में तोलने के लिए ।
Tuesday, October 7, 2008
...क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है !
ऐसी लड़कियां परिवार के अनगढ़े कानूनों को तो लांघ जाती हैं...मगर उनके साए आजादी के खयाल के साथ साथ इनका पीछा करते हैं। ये लड़कियां आजादी की जिन अगली सीढ़ियों पर कदम रखती हैं... समाज और संस्कार के बंधन वहां पहले से जाल बिछाए बैठे रहते हैं। अपने घर से बीसियों किलोमीटर दूर किसी अनजान से शापिंग मॉल या फिर पार्क में चले जाने के बाद भी उन्हें जानी पहचानी नजरों का डर सताता ही रहता है। हर वक्त उनके जेहन में यही खयाल डेरा डाले रहता है...कहीं सामने से आ रही भीड़ में कोई जान पहचान वाला ना हो। कोई रिश्तेदार....कोई पड़ोस का अंकल या फिर शक्कर उधार मांगने आने वाली आंटी जी।
इन लड़कियों को आपने भी खूब ताड़ा होगा। इन्हें देखकर आपके जेहन में भी एकबारगी “गुड़ खाए, गुलगुल्ले से परहेज करे” वाला मुहावरा जरुर कौंधा होगा। मगर वो भी क्या करें। वो दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर या फिर चेन्नई जैसे शहरों में रहती जरुर हैं..मगर उनके मन की खिड़कियां उस मिडिल क्लास परिवार की जकड़न में खुलती हैं। जहां आजाद खयाल लड़की होना...एक फैशन तो हो सकता है..हकीकत कभी नहीं। ये वो लड़कियां हैं जो आजादी की बंदिशों के बीच जी रही हैं। दरअसल वो आजादी के रास्ते पर निकल तो पड़ी हैं...मगर उन्हें ट्रैफिक के कायदे कानून मालूम नहीं। लिहाजा, वो थोड़ा संभल संभलकर चलना चाहती हैं।
ये लड़कियां मिनी स्कर्ट तो पहनती हैं...लेकिन उसके नीचे वो टाइट फिट (काला कपड़ा...मालूम नहीं इसे क्या कहते हैं) पोशाक पहनती हैं....जिनमें बस एक आभास सा रह जाता है मिनी स्कर्ट पहनने का। ये लड़कियां शार्ट टॉप..और लो वेस्ट जींस तो पहनती हैं....मगर हर दो मिनट पर अपना टॉप पीछे से खींचती रहती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती..ये लड़कियां डीप नेक का सूट सिलवा तो लेती हैं....मगर दुपट्टा सरक ना जाए...इसकी चिंता में दुबली होती रहती हैं। ये लड़कियां अपने प्रेमी के साथ हाथ पर हाथ रखे घंटों रेस्टोरेंट में रोमांस कर सकती हैं। लेकिन सड़क पर चलते हुए अपने कंधों या कमर पर उनका हाथ उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। ये वो लड़कियां हैं..जो मॉडर्न कपड़े दरअसल इसीलिए पहनती हैं कि लोग उन्हें देखें...उन पर गौर फरमाएं....लेकिन ऐसा कर लेने के बाद हर वक्त उनकी नजर इसी बात पर होती है...कहीं कोई उन्हें देख तो नहीं रहा।
आखिर वो ऐसा क्यों करती हैं। वो क्यों नहीं मान लेतीं कि वो कभी आजादी की उस परिकल्पना को नहीं जी पाएंगी जिसे वो इन कपड़ों में तलाशने की कोशिश में हैं। मगर वो भी क्या करें..वो समाज के उस मिडिल क्लास तबके से आती हैं....जहां पढ़ाई लिखाई तो ऊंची कराई जाती है। मगर साथ ही ये हिदायत भी दी जाती है कि किताबी बातें सिर्फ किताब तक रहें तो अच्छा। लेकिन तेजी से बदल रही दुनिया में खुद पर पिछड़ा होने का टैग लग जाने का डर भी उन्हें अंदर ही अंदर सालता रहता है। उन्हें लगता है मानो शादी से पहले जिंदगी में एक ब्वाय फ्रेंड होना उतना ही जरुरी है...जितना कोई दूसरा काम। उन्हें लगता है..अगर अभी चूक गए तो शायद फिर कभी इन कपड़ों से साबका नहीं होगा..। मगर ये सब कुछ इनकी खयालों की दुनिया का हिस्सा होता है...हकीकत में वो अपने उसूलों, संस्कारों और मर्यादाओं में इस कदर जकड़ी होती हैं...कि कसमसाहट भी नजर नहीं आती।
खैर, अगर आज तक आप ऐसी लड़कियों से नहीं मिले...तो जनाब जब आप रेड लाइट पर फंस जाएं तो बाइक सवार लड़के के पीछे बैठी लड़की को गौर से देखिए...। उसके बैठने का अंदाज आपको बता देगा...ये ओरिजनल मॉडर्न लड़की है...या फिर मेरे इस आर्टिकल की कैरेक्टर... जो आजादी की खुशफहमी को भरपूर जीना चाहती है.... उसे फिक्र तो है...मगर अपनी बेफिक्री की। वो आजाद तो होना चाहती है...लेकिन बंदिशों के साथ साथ। क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है।
Sunday, October 5, 2008
क्या मिलेगा तुम्हें मुसलमानों को धोखे में रखकर !
विशुद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ। जाहिर तौर पर संस्कार भी वैसे ही मिले। जब भी कोई मुसलमान चौखट पर आ जाता तो चाय देते वक्त घर में शीशे का गिलास निकाला जाता। जिसमें मैंने कभी घर के किसी सदस्य को कभी चाय पीते नहीं देखा। लेकिन मन में कभी कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ। ऐसा लगा कि ये एक नियम है। लिहाजा सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। मेरे घर में मेरे बाबूजी की पैदाइश से पहले से ही एक बेवा रहती थी। उसका मजहब इस्लाम था। मगर वो घर के एक सदस्य के जैसी थी। इस बारे में पहले भी लिख चुका हूं। बाबूजी की पैदाइश साल 1954 की है। ये बताने की जरुरत नहीं, उस दौर में गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हालात कैसे रहे होंगे। समाज के तमाम विरोधों के बावजूद वो मुसलमान बेवा हमारे घर में रही...औऱ वो आज भी मौजूद है।
बाबूजी..ने जिंदगी में शायद ही कभी ईमानदारी और सच्चाई को ताक पर रखा हो...लेकिन अपने बेस्ट फ्रेंड के लिए एक दफा उन्होंने उसकी जगह पर परीक्षा दी..। इस खतरे के बावजूद कि पकड़े जाने पर बेइज्जती के साथ-साथ उनका करियर भी खत्म हो सकता था। लेकिन खाने पीने की दिक्कतों के दौर से गुजर रहे अपने मुसलमान दोस्त की परेशानियां उन्हें कहीं बड़ी लगीं। आज भी इस दुनिया में उनके इकलौते बेस्ट फ्रेंड वही जावेद चाचा हैं। बाबा बुआ लोगों की पढ़ाई को लेकर बहुत जागरुक थे। उन्हें खूब पढ़ाया लिखाया। मगर पर्देदारी के साथ। ये बताने की जरुरत नहीं उस दौर में लड़कियों के मन पर परिवार और इसके संस्कारों का असर कितना होता था। मगर मेरी बुआ लोगों की ज्यादातर सहेलियां मुसलमान ही रहीं...जिनके निकाह वगैरह में भी वो शरीक हुईं....बावजूद कि वो एक कट्टर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। एक अर्से तक संघ की शाखाओं में शामिल होने वाले मेरे चाचा की मित्रमंडली में इम्तियाज...जो दर्जी का काम करते थे....एबीसीडी (नाम भूल रहा हूं)....जो इक्कागाड़ी चलाते थे...और भी कई दूसरे मुसलमान शामिल थे। जो घर में होने वाले हर तीज त्यौहार पर मौजूद रहते थे। और उन्हें घर के सदस्य जैसा सम्मान मिलता था...। उम्र के साथ हर कोई अपनी अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गया...लेकिन आज भी अगर इनमें से कोई कहीं टकरा जाए....तो हम बच्चे सगे चाचा जैसा सम्मान देते हैं।
मेरा घर यूपी के गाजीपुर जिले के जमानियां कस्बे के पास एक गांव में है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में एक भी मुसलमान परिवार नहीं रहता। लेकिन घर के कपड़े लत्ते धोने वाली पड़ोस के गांव की धोबन मुसलमान है। सुहाग की चूड़ियां, बिंदी और फीता के लिए चाचियों को हमेशा चूड़िहारन का इंतजार रहता है। ये सोचकर कि अबकी बार कहीं चूड़िहारन को खाली हाथ ना लौटना पड़े। बाजार जाने पर भी महिलाएं अपना सामान नहीं ले आती हैं। चूड़िहारन भी मुसलमान है...और वो
घर में लोगों के बीमार पड़ने का सिलसिला लगा ही रहता है....ऐसे में अस्पताल जाने पर उसकी गेट पर मेडिकल स्टोर चला रहे जमाल चाचा ही डॉक्टर के पास ले जाते हैं। जाहिर है...दवाईयां उनके ही दुकान से ली जाती हैं....पैसा हो तो भी...ना हो तो भी। जबकि उनकी दुकान के अगल बगल कितने ही हिंदुओं की दुकानें हैं। यही नहीं बाजार में सैलून चलाने वालों की कोई कमी नहीं... लेकिन जब भी बाबूजी को दाढ़ी बनवानी होती है या फिर बाल कटवाने होते हैं...वो वकील नाई के यहां ही जाते हैं...जो कायदे से अभी तक एक गुमटी भी नहीं ले सके। बचपन में हमारे लिए वो मजबूरी जैसे थे। बाकी कहीं से भी बाल कटवाने की आजादी नहीं थे...हम चिढ़ते थे...लेकिन बाबूजी कहते थे...बिचारा गरीब है.. उसे दो पैसा मिल जाए तो क्या हर्ज है। बाबूजी बड़े साहित्यकार हैं....कवि हैं...ये अलग बात है छोटी जगह पर रहते हैं...। लिहाजा उनके शिष्यों की भी कोई कमी नहीं है..। आजकल बाबूजी का एक नया शिष्य बना है। उसकी उम्र मुझसे एक दो साल कम होगी। कविताएं लिखने का उसे शौक है...। लिहाजा उसने बाबूजी को अपना गुरु बना लिया है। उसका नाम है तौसीफ। लेकिन उसने अपने नाम के आगे सत्यमित्रम् जोड़ लिया है। मेरा नाम विवेक सत्यमित्रम् है। मुझे इस बात का गर्व था कि मेरा नाम दुनिया भर में वन पीस है। लिहाजा जब तौसीफ ने अपने नाम के साथ सत्यमित्रम् जोड़ा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन ये नाम रखने वाले बाबूजी ने बेहद आराम से कह दिया... अरे भाई क्या हर्ज है...इसमें।
ये तो वो लोग हैं..जिनका ध्यान मुझे हो आया। न जाने कितने ही लोग छूट गए होंगे...जो मुसलमान होकर भी हमारी जिंदगी में इस कदर शामिल रहे...हैं...और रहेंगे कि हम चाहें तो भी उन्हें अलग नहीं कर पाएंगे। और कहीं से भी ये सब कुछ प्रायोजित नहीं है...बेहद सहज है। बावजूद इसके अगर मैं जामियानगर में हुई मुठभेड़ को गलत साबित करने के तर्क नहीं गढ़ता...अगर मैं ये नहीं मान लेता कि भारत में होने वाले दंगे हमेशा हिंदुओं की वजह से होते हैं...अगर मैं बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड पर घड़ियाली आंसू नहीं बहाता तो सेकुलरिज्म के तथाकथित ठेकेदार मुझे सांप्रदायिक बताने में कुछ सेकेंड भी नहीं लगाएंगे। और आपको बता दूं.. ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। लाखों लोगों की जिंदगियां ऐसी ही हैं। मगर जब भी बात होती है आतंकवाद की...धमाकों की...दहशत की...और उसमें नाम आता है किसी मुसलमान का...तो मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग जो इस कौम के पक्ष में दलीलें गढ़कर..बेवजह चीख पुकार मचाकर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कभी नहीं करते...उन्हें एक झटके में हिंदूवादी करार दे दिया जाता है, जिन्हें मुसलमान फूटी आंख नहीं सुहाते। जबकि आतंकवाद या दहशतगर्दी पर एक आम आदमी की सहज प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होगी। उसे सरकार, पुलिस, प्रशासन पर भरोसा करना ही होगा...जब तक कि असलियत कोई और जाहिर न कर दे। लेकिन वो जो आम नहीं हैं....जो कुछ खास हैं...या साफ शब्दों में कहें तो बुद्धिजीवी हैं....उन्हें तो हर बात में हिंदुओं को कोसने....बेजा मामलों में भी मुसलमानों का पक्ष लेने में अजीब सा सुख मिलता है।
दरअसल ये वो लोग हैं जो अपनी सेकुलर छवि को बरकरार के रखने के लिए समाज को हिंदू और मुसलमान में बांटकर रखना चाहते हैं। वरना.... अगर एक हिंदू नन का रेप कर दे...तो इन्हें तत्काल यकीन हो जाता है...लेकिन एक मुसलमान धमाके कर दे...तो इनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है....इन्हें लगता है कि उसे बेवजह फंसाया जा रहा है। मैं भी मानता हूं...बहुत से मामले फर्जी हो सकते हैं...पर हर बार तो ऐसा नहीं होता...। लेकिन सेकुलर दिखने के फैशन के कद्रदान बुद्धिजीवियों को हर बार यही लगता है।
क्या हम सच और झूठ... सही और गलत की बुनियाद पर चीजें तय नहीं कर सकते...। बेवजह एक बड़ी आबादी, जो खुद अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा के साथ जी रही है, उसे और डराकर सेकुलरिज्म के ये ठेकेदार आखिर क्या हासिल कर लेंगे...। हिंदू या मुसलमान को नहीं, समाज के बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करने की जरुरत है...जो पाखंडी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं...उनके ‘वाद’ का ब्रांड चाहे जो हो। यकीन मानिए....मुसलमानों पर अत्याचार की मनगढंत कहानियों का मेरे घर पर और यहां की सामाजिक बुनावट पर कोई असर नहीं पड़ता....लेकिन तब क्या होगा...जब बुद्धिजीवियों के जहरीले विचारों का जहर एक दिन मेरे गांव...मेरे कस्बे....मेरे घर तक पहुंच जाएगा। बस करो बुद्धिजीवियों,...सच की बात करो...झूठ की बात करो..सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...। क्योंकि मैं अपने आने वाली पीढ़ी को अपने परिवार की यही मजहबी बुनावट सौंपना चाहता हूं....जिसे तुम लोग बर्बाद करने पर तुले हो।
Thursday, September 25, 2008
पुण्य प्रसून वाजपेयी जी…कम से कम आप से ये उम्मीद नहीं थी !
Tuesday, September 23, 2008
क्या आप लगाएंगे अपने फोन में कंडोम वाला रिंगटोन ?
Monday, September 22, 2008
मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...!
अगर ये लड़की उस टाइप की होती.. तो कहानी का शीर्षक कुछ और हो सकता था...लेकिन ऐसा नहीं था। वो कुछ अलग टाइप की लड़की थी.., ये बात अलग है.... आज भी गांवों और छोटे शहरों की ज्यादातर लड़कियां उसी के जैसी होती हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दो साल लड़कियों से सामान्य शिष्टाचार के बगैर ही गुजर गए..। सिविल की तैयारी फर्स्ट इयर से ही शुरु कर दी थी..लिहाजा यूनिवर्सिटी में क्लासेज अटेंड करना टाइम की बर्बादी लगता था। सब कुछ ठीक चल रहा था..लेकिन कहीं न कहीं जिंदगी में लड़की नाम की प्राणी का नहीं होना भी बेहद अखरता था। ये सब कुछ बेहद नेचुरल था। समय भागता जा रहा था, इस बीच कहीं न कहीं ये अहसास भी कुलबुला रहा था..ग्रेजुएशन करके पूरी तरह से पढ़ाई में जुट जाने के बाद लड़कियों से बातचीत तक का मौका नहीं मिलेगा। आखिरकार फिल्मों में दिखने वाली कॉलेज लाइफ की रुमानियत ने इतना मजबूर किया.. जानबूझकर मैंने थर्ड ईयर में मेडिवल हिस्ट्री की क्लासेज अटेंड करनी शुरु कीं, जिनका मैंने पहले के दो सालों में दर्शन भी नहीं किया था। और ऐसा पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत हुआ...। 18 साल की उम्र में बालिग होने का अहसास भी हिलोरें मार रहा था.. साथ ही साथ ये डर भी सता रहा था.. कॉलेज लाइफ बस यूं ही गुजर जाएगी। और मैं युवा हुए बगैर ही... सिविल की तैयारी करते करते बुजुर्गावस्था को प्राप्त हो जाउंगा। लिहाजा, मेडिवल हिस्ट्री में लड़कियों की बड़ी खेप होने की अफवाहों के बीच.....मैंने क्लास अटेंड करने शुरु कर दिए। यूं तो मैं इंग्लिश मीडियम का स्टूडेंट था। मगर लड़कियों की आबादी हिंदी मीडियम में ज्यादा होगी... इस कैलकुलेशन के हिसाब से हिंदी मीडियम में ही क्लास करना शुरु कर दिया...।
अफवाहों में दम था। क्लास में पहुंचने वाली आबादी में एक बड़ी खेप लड़कियों की थी। ये देखकर मेरा हौसला और बढ़ा। दिन चढ़ने तक बिस्तर में दुबके रहने वाला मेरे जैसा इंसान.. सुबह सुबह 7 बजे की क्लास में पहुंचने लगा। धीरे धीरे लड़कियों से भी जान पहचान बढ़ी। मगर जिस लड़की से अनायास ही बात करने का मन होता.. वो जब देखो तब किताबों में ही गोते लगाती रहती थी। कई बार तो हैरानी होती..जिस माहौल में लोग हंसी ठहाके लगा रहे होते... वो किताबों में कैसे खोई रहती। बहुत अजीब लगता..। लेकिन इसी अजीब की वजह से उससे बात करने की इच्छा प्रबल होती गई। अगले कुछ दिनों में मैंने हाय... हलो.. तक बात बढ़ाई....मगर इससे ज्यादा कोई दूसरी बात नहीं होती। इस लड़की की काया.. कुछ ऐसी थी.. कहां शुरु होती.. और कहां खत्म हो जाती.. इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। सुंदरता के बेहद फीजिकल मानदंडों पर वो कहीं भी खड़ी नहीं हो सकती थी। दिखने में बेहद सामान्य किस्म की । कद बमुश्किल 4 फुट और कुछ इंच। रंग गोरा.. लेकिन अजीब सा फीकापन लिए हुए। बाल लंबे....मगर उनमें इतना तेल...। यानि देखने में कोई भी ऐसी बात नहीं थी.. जो उस उम्र में मुझे किसी लड़की से बात करने के लिए मजबूर करे। फिर भी, उसकी चुप्पी...उसका एकाकीपन... मुझे उसकी ओर खींचता था। उस वक्त तक मेरी किसी लड़की से दोस्ती नहीं थी.. लिहाजा, एक दिन अचानक मेरे दिमाग में उससे दोस्ती करने का फितूर सवार हुआ। जबकि ना तो मैं उसकी ओर आकर्षित हो रहा था.. ना ही कोई रोमांटिक या भावनात्मक खिंचाव ही था। मेरे सपनों में आने वाली लड़कियों के मुकाबले वो कहीं नहीं ठहरती थी। फिर भी... मैं उससे दोस्ती करने पर आमादा हो गया। यूं तो किसी से दोस्ती करना बेहद सामान्य बात है.. लेकिन इस कहानी के उतार चढ़ाव के लिहाज से मैं "फितूर’’ और ‘आमादा’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं।
खैर, एक दिन मैंने उसके सामने दोस्ती का प्रस्ताव रख दिया। मैंने उससे कहा...’मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं...।’ ये सुनते ही वो परेशान हो उठी। उस दिन बिना कुछ बोले वो वहां से चली गई। अगले तीन चार दिनों तक उसका कोई अता पता नहीं चला। फिर एक दिन अचानक वो प्रगट हुई। क्लास खत्म होने के बाद उसने मुझे इशारों से बुलाया। मैं दोस्ती के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने की उम्मीद में विजयी भाव में उसके पास पहुंचा..। पर यहां तो पासा उल्टा पड़ गया था। उसने बिना लाग लपेट के साफ लहजे में कहा कि वो मेरी दोस्त नहीं बन सकती। जिस हिकारत भरे अंदाज में उसने ये बात कही.. मेरी सहज इच्छा.. मेरी जिद बन गई। मैंने एक लाइन में जानना चाहा....आखिर क्यों नहीं बन सकता मैं उसका दोस्त..। उसने कहा... वो इसका जवाब नहीं देना चाहती। मैंने फिर उसे कुरेदा.. पर वो कुछ कहे बिना ही वहां से चलती बनी। अब मुझे कुछ भी होश नहीं था, मैं क्या कर रहा हूं..। मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा। उसे ये बात बुरी लग रही थी। उसे लग रहा था, बाकी के सभी लोग उसी को देख रहे हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस से होते हुए.. वो जानबूझकर यूनिवर्सिटी रोड की ओर से निकलकर कटरा बाजार में चली गई। उसे लगा कि अब तक मैं जा चुका होउंगा..। मगर मैं अपने सवाल का जवाब मिले बिना मानने वाला नहीं था। मैं उससे एक निश्चित दूरी पर ठीक उसके पीछे ही चल रहा था। कुछ देर बाद जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वो सकपका गई...। अब उसके पास पीछा छुड़ाने का एक ही रास्ता था। वो फट से एक लेडीज टेलर की दुकान में घुस गई...। अपने आपे से बाहर निकल चुका मैं...उसके पीछे पीछे लेडीज टेलर की दुकान में घुस गया।अब तो जैसे उसका आखिरी दांव भी चूक गया था।
आखिरकार उसने मुझे एक कोने में बुलाया। और एक लगातार बोलती गई... "देखो...मैंने आज तक कभी किसी लड़के से बात तक नहीं की थी.. तुम वो पहले लड़के हो.. जिससे मैं थोड़ी बहुत बात करने लगी थी...लेकिन इसका मतलब ये नहीं है....मैं...(एक फुल स्टाप के बराबर चुप्पी).... मेरे पिताजी रेलवे में काम करते हैं.... हम लोग बिहार के रहने वाले हैं....हमारे घर में लड़कियों को पढ़ने की आजादी नहीं है... मैं घर में पहली लड़की हूं.. जिसे यूनिवर्सिटी में रेगुलर बीए करने का मौका मिला... मेरी तीन बहने हैं... और मैं उनमें सबसे बड़ी हूं....मेरे घर के लोग बहुत रुढ़िवादी हैं... हमारे घर में लड़कों से दोस्ती करने की आजादी नहीं है..... वैसे भी... मुझे इन चीजों में कोई इंटरेस्ट नहीं है... मैं तो पढ़ाई लिखाई पूरी करके....अपनी गुरुमां (कोई आध्यात्मिक गुरु) के आश्रम में चली जाऊंगी... प्लीज आइंदा से मेरा पीछा मत करना... तुम अच्छे लड़के हो... लेकिन मैं किसी से दोस्ती नहीं कर सकती... वैसे भी तुम्हें बता दूं.... मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...।" कहानी खत्म हो गई, पर उसके जेहन में कायम लड़कियों की उस कैटेगरी का पता नहीं चल पाया.. जिसमें शामिल हो जाने के भय मात्र से उसका चेहरा पीला पड़ गया था...।