साल 2003 की बात है। उस वक्त दिल्ली में बस का न्यूनतम किराया 3 रुपए की बजाए 2 रुपए हुआ करता था। आईआईएमसी में 9 महीने का हनीमून खत्म हो चुका था। जिंदगी की क्रूरतम सच्चाईयों से रुबरु होने का वक्त आ चुका था। एक-एक रुपए की कीमत समझ में आने लगी थी। खर्चे बढ़ गए थे, मगर घर से मिलने वाला बेरोजगारी भत्ता जस का तस था। लिहाजा, जहां पैसे बचाए जा सकते थे, बचा लेते थे। किसी की ईमानदारी की कीमत भला क्या हो सकती है। फिर भी लोग मानते हैं, बहुत मोटी रकम मिले तो बेईमानी को जस्टिफाई किया जा सकता है। मगर मैंने तो महज 3 रुपए के लिए कितनी ही बार अपनी ईमानदारी बेची है। जी हां, पचासों बार मैंने 5 रुपए के बदले 2 रुपए और 10 के बदले 7 रुपए का टिकट लेकर बस में सफर किया है। ताकि 3 रुपए बच सकें... क्योंकि उस वक्त इन 3 रुपयों की कीमत बहुत ज्यादा थी...शायद आज के 500 रुपयों से भी ज्यादा। क्योंकि आमदनी का कोई दूसरा जरिया नहीं था, घर से जो पैसे मिलते थे.. उससे बस दिल्ली में जिंदा भर रहा जा सकता था। लेकिन 3 रुपए की बेईमानी भी आसान नहीं थी। इसके लिए बस स्टैंड पर जहां बाकी के लोग डीटीसी बसों का इंतजार कर रहे होते थे, मैं प्राइवेट बस की ताक में रहता। खाली से खाली डीटीसी बस आंखों के सामने से गुजर जाती मगर मैं खड़ा रहता...। क्योंकि मेरे जेहन में 3 रुपए बचाने की मजबूरी घुमड़ती रहती थी। यकीन मानिए.. 3रुपए बचाने के लिए इतना ज्यादा खून जलाना पड़ता था, जो 500 रुपए के मेवे खाकर भी नहीं बनता। मसलन, बस में चढ़ने के बाद सबसे पहले कंडक्टर से टिकट लेने तक मन में इतने बवंडर उठ रहे होते.. जिनका कोई हिसाब नहीं है। खुद को उस झूठ के लिए तैयार करना पड़ता... जो बेहद मामूली होती थी। टिकट लेने के दो तरीके होते हैं। पहला ये कि आप जगह का नाम बता दें। दूसरा ये कि आप सीधे बोल दें 2 रुपए का। अगर कंडक्टर सीधे तौर पर टिकट देदे तो ठीक पर कहीं वो पलटकर पूछ दे..।कहां जाना है.. तो समझिए... मन के भीतर भूचाल आ जाता था। कई बार तो झूठ बोलते हुए होंठ तक कांप जाते थे। मगर क्या करते, 3 रुपए बहुत होते थे उस जमाने में। टिकट लेने के बाद भी तब तक चैन नहीं होता, जब तक कि अपनी मंजिल तक ना पहुंच जाएं। लगता रहता कि कहीं कंडक्टर आकर पूछ ना दे भई तूने तो 2 का लिया था.. कहां तक जाएगा। लिहाजा, टिकट लेकर कोने में दुबके रहते। कहीं कंडक्टर का ध्यान ना चला जाए। यही नहीं, साथ सफर कर रहे लोगों से भी कई दफा नजर टकरा जाती तो लगता मानो वो पूछ रहा हो...अबे बेईमान 2 रुपए में कहां तक जाएगा...। मगर क्या करते, पैसों की किल्लत....बेरोजगारी की अनिश्चितता भरी जिंदगी... और बेतहाशा बढ़ती महंगाई के बीच...3 रुपए अपनी औकात से कई गुना ज्यादा होते थे। जिस ईमानदारी को कोई करोड़ों में नहीं खरीद सकता... उसे खुद मैंने महज 3 रुपए में कितनी ही बार बेचा है..। अब सोचता हूं तो लगता है.. 3 रुपए भी कम नहीं होते....।
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17 comments:
शानदार...बेहद उम्दा...
bahut achchi tarah se aapne apne dil ki baat rakhi hai....ham sabhi kai baar is kashamkash ke daur se guzarte hain.. kai baar beimaani us wakt ki zarurat hoti hai.
कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया विवेक आपने....दसियों बार कॉलेज के जमाने में कैंटीन से लेकर बसों और फोटोस्टेट करवाने के नाम पर चकमा दिया करते थे और मजे में बाहर आकर हंस लेते थे। कभी इस तरह से नहीं सोचा। अच्छा लिखा है आपने... बढ़िया।
सभी लोग जरूरत की हिसाब से समय समय पर बैमानी करते है , लेकिन बहुत कम ही लोग होते हैं जो उसे स्वीकारते भी है .
ओह लगा कि आप मेरा ही अतीत बांच रहे हैं. यकीन मानिये मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ करता था. कॉलेज मैं जेब खर्च के लिए और बस के किराये के जो पैसे मिलते थे. मैंने भी कई बार ५ की बजाये २ का और ७ की बजाये ५ का टिकेट लिया है. वैसे दिल्ली में ये सब चलता है. दिल्ली मैं रहना है तो बेईमानी को जस्टिफाई करना होगा....
ये दर्द बस में सफर करने वाले ज्यादातर ईमानदारों का है...दरअसल बस के धक्के में संवेदनाओं का मर जाना आम है... बस में पसीने से तर बतर बगल से जाती एअरकंडीशन गाड़ी एक झटके में सारी सोच बदल देती है... सर ये आपकी ईमानदारी बेचना नहीं है बल्कि पैसे को बचाकर थोड़ी सी और सहुलियत खरीद लेने की चाहत है...
बहुत ईमानदार लेखन...
बहुत खूब...
ईमानदारी है पूरे लेखन में ....बहुत अच्छे ....
एक बहुत ही ईमानदार पोस्ट।
dil ko chooti post
ईमानदारी बेचने के बारे में ईमानदारी से लिखा है आपने..महसूस कर सकती हूं मैं भी इसे क्योंकि क्योंकि कई बार मुझे भी ऐसा करना पड़ा था.....
बहुत सटीक लिखा है हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है निरंतरता की चाहत है समय नकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें
भरी कष्टकारी बस में खुद से ईमानदारी की अपेक्षा तो ज्यादती है।
Vivek,
Main vinod huin, tumara IIMC ka saathi, diamg per zor dale bagair keh sakta huin, kam se kam 4-5 saal baad mukhatib ho raha huin tumse. Ya fir yoon kahuin ki ek naye Vivek Satyamitram se jise main ab tak nahin jaanta tha. Bahut achchha likhte ho, ye kehna shayad nakafi aur adhoora insaaf hoga, lekin filhaal ise se kaam chala lo. Main nahin jaanta ki tum is waqt kahan ho kya kar rahe ho, lekin tum kahan jaaoge iska andaaza laga sakta huin. Mera aanklan sirf aur sirf positive mein hai. Kaash main ye 'khat' hindi mein likh paata. Ye kuchh aisi cheezein hain jahan jazbaaton ko bhi takneek ki baat johni padti hai. Beharhaal, tumhe johne ke liye zyaada koshish na karni pade isliye, apna number de dena. Haq se maang raha huin.
Take Care
Vinod Agrahari
98736-70700.
kamal kar diya vivek tumne . adbhut likha hai bilkul dil ke bat.jyadatar logon ke saath kabhi na kabhi esa hota hai.
आपने तो हम सबकी दिल की बात अपने ब्लॉग पर उतार दी है.....ईमानदारी की एक उम्दा उदाहरण हैं ये ब्लॉग...
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