Tuesday, October 7, 2008

...क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है !

आप भी हर रोज मिलते हैं उन लड़कियों से। कभी पार्क में, कभी मॉल में, कभी किसी रेस्टोरेंट में तो...कभी राह चलते सड़क पर। वो जब खुश होती हैं...तब भी उनके चेहरे पर खुशी के भाव नहीं होते। वो अपने आशिक की बाहों में बाहें डालकर तो चलती हैं...मगर बेफिक्र नहीं होतीं। जब तक वो सिनेमाहाल के घुप्प अंधेरे में गुम नहीं हो जातीं...उनके चेहरे पर आने वाले भाव पकड़ पाना आसान नहीं होता। देखकर तो कोई ये बता ही नहीं सकता...इस वक्त ये लड़की खुश है...दुखी है...परेशान है....या फिर ये बिल्कुल सामान्य है।

ऐसी लड़कियां परिवार के अनगढ़े कानूनों को तो लांघ जाती हैं...मगर उनके साए आजादी के खयाल के साथ साथ इनका पीछा करते हैं। ये लड़कियां आजादी की जिन अगली सीढ़ियों पर कदम रखती हैं... समाज और संस्कार के बंधन वहां पहले से जाल बिछाए बैठे रहते हैं। अपने घर से बीसियों किलोमीटर दूर किसी अनजान से शापिंग मॉल या फिर पार्क में चले जाने के बाद भी उन्हें जानी पहचानी नजरों का डर सताता ही रहता है। हर वक्त उनके जेहन में यही खयाल डेरा डाले रहता है...कहीं सामने से आ रही भीड़ में कोई जान पहचान वाला ना हो। कोई रिश्तेदार....कोई पड़ोस का अंकल या फिर शक्कर उधार मांगने आने वाली आंटी जी।

इन लड़कियों को आपने भी खूब ताड़ा होगा। इन्हें देखकर आपके जेहन में भी एकबारगी “गुड़ खाए, गुलगुल्ले से परहेज करे” वाला मुहावरा जरुर कौंधा होगा। मगर वो भी क्या करें। वो दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर या फिर चेन्नई जैसे शहरों में रहती जरुर हैं..मगर उनके मन की खिड़कियां उस मिडिल क्लास परिवार की जकड़न में खुलती हैं। जहां आजाद खयाल लड़की होना...एक फैशन तो हो सकता है..हकीकत कभी नहीं। ये वो लड़कियां हैं जो आजादी की बंदिशों के बीच जी रही हैं। दरअसल वो आजादी के रास्ते पर निकल तो पड़ी हैं...मगर उन्हें ट्रैफिक के कायदे कानून मालूम नहीं। लिहाजा, वो थोड़ा संभल संभलकर चलना चाहती हैं।

ये लड़कियां मिनी स्कर्ट तो पहनती हैं...लेकिन उसके नीचे वो टाइट फिट (काला कपड़ा...मालूम नहीं इसे क्या कहते हैं) पोशाक पहनती हैं....जिनमें बस एक आभास सा रह जाता है मिनी स्कर्ट पहनने का। ये लड़कियां शार्ट टॉप..और लो वेस्ट जींस तो पहनती हैं....मगर हर दो मिनट पर अपना टॉप पीछे से खींचती रहती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती..ये लड़कियां डीप नेक का सूट सिलवा तो लेती हैं....मगर दुपट्टा सरक ना जाए...इसकी चिंता में दुबली होती रहती हैं। ये लड़कियां अपने प्रेमी के साथ हाथ पर हाथ रखे घंटों रेस्टोरेंट में रोमांस कर सकती हैं। लेकिन सड़क पर चलते हुए अपने कंधों या कमर पर उनका हाथ उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। ये वो लड़कियां हैं..जो मॉडर्न कपड़े दरअसल इसीलिए पहनती हैं कि लोग उन्हें देखें...उन पर गौर फरमाएं....लेकिन ऐसा कर लेने के बाद हर वक्त उनकी नजर इसी बात पर होती है...कहीं कोई उन्हें देख तो नहीं रहा।

आखिर वो ऐसा क्यों करती हैं। वो क्यों नहीं मान लेतीं कि वो कभी आजादी की उस परिकल्पना को नहीं जी पाएंगी जिसे वो इन कपड़ों में तलाशने की कोशिश में हैं। मगर वो भी क्या करें..वो समाज के उस मिडिल क्लास तबके से आती हैं....जहां पढ़ाई लिखाई तो ऊंची कराई जाती है। मगर साथ ही ये हिदायत भी दी जाती है कि किताबी बातें सिर्फ किताब तक रहें तो अच्छा। लेकिन तेजी से बदल रही दुनिया में खुद पर पिछड़ा होने का टैग लग जाने का डर भी उन्हें अंदर ही अंदर सालता रहता है। उन्हें लगता है मानो शादी से पहले जिंदगी में एक ब्वाय फ्रेंड होना उतना ही जरुरी है...जितना कोई दूसरा काम। उन्हें लगता है..अगर अभी चूक गए तो शायद फिर कभी इन कपड़ों से साबका नहीं होगा..। मगर ये सब कुछ इनकी खयालों की दुनिया का हिस्सा होता है...हकीकत में वो अपने उसूलों, संस्कारों और मर्यादाओं में इस कदर जकड़ी होती हैं...कि कसमसाहट भी नजर नहीं आती।

खैर, अगर आज तक आप ऐसी लड़कियों से नहीं मिले...तो जनाब जब आप रेड लाइट पर फंस जाएं तो बाइक सवार लड़के के पीछे बैठी लड़की को गौर से देखिए...। उसके बैठने का अंदाज आपको बता देगा...ये ओरिजनल मॉडर्न लड़की है...या फिर मेरे इस आर्टिकल की कैरेक्टर... जो आजादी की खुशफहमी को भरपूर जीना चाहती है.... उसे फिक्र तो है...मगर अपनी बेफिक्री की। वो आजाद तो होना चाहती है...लेकिन बंदिशों के साथ साथ। क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है।

Sunday, October 5, 2008

क्या मिलेगा तुम्हें मुसलमानों को धोखे में रखकर !

( बाटला हाउस...जामिया नगर....एनकाउंटर....और अरेस्ट्स को लेकर ब्लॉग वर्ल्ड में अभी भी तहलका मचा हुआ है। अलग-अलग लोग अपनी बात रख रहे हैं। मेरा ये लेख थोड़ा लंबा जरुर हो गया है। मगर जो कुछ मैंने लिखा है..उसका सरोकार आम आदमी की जिंदगी से है....जो अपनी मर्जी से हिंदू या मुसलमान नहीं बना...और आज भी वो सिर्फ इंसान है...लेख एक तरह से सवालों का पुलिंदा है...उस शख्स का जिसे डर लगता है कि कहीं लोग उसे मुस्लिम विरोधी तो नहीं मानते...क्योंकि वो बुद्धिजीवियों की तरह दोमुंहा नहीं है, जो सब कुछ नाप तौलकर करते हैं। - विवेक सत्य मित्रम् )


विशुद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ। जाहिर तौर पर संस्कार भी वैसे ही मिले। जब भी कोई मुसलमान चौखट पर जाता तो चाय देते वक्त घर में शीशे का गिलास निकाला जाता। जिसमें मैंने कभी घर के किसी सदस्य को कभी चाय पीते नहीं देखा। लेकिन मन में कभी कोई सवाल खड़ा नहीहुआ। ऐसा लगा कि एक नियम है। लिहाजा सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। मेरे घर में मेरे बाबूजी की पैदाइश से पहले से ही एक बेवा रहती थी। उसका मजहब इस्लाम था। मगर वो घर के एक सदस्य के जैसी थी। इस बारे में पहले भी लिख चुका हूं। बाबूजी की पैदाइश साल 1954 की है। ये बताने की जरुरत नहीं, उस दौर में गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हालात कैसे रहे होंगे। समाज के तमाम विरोधों के बावजूद वो मुसलमान बेवा हमारे घर में रही...औऱ वो आज भी मौजूद है।


बाबूजी..ने जिंदगी में शायद ही कभी ईमानदारी और सच्चाई को ताक पर रखा हो...लेकिन अपने बेस्ट फ्रेंड के लिए एक दफा उन्होंने उसकी जगह पर परीक्षा दी.. इस खतरे के बावजूद कि पकड़े जाने पर बेइज्जती के साथ-साथ उनका करियर भी खत्म हो सकता था। लेकिन खाने पीने की दिक्कतों के दौर से गुजर रहे अपने मुसलमान दोस्त की परेशानियां उन्हें कहीं बड़ी लगीं। आज भी इस दुनिया में उनके इकलौते स्ट फ्रेंड वही जावेद चाचा हैं। बाबा बुआ लोगों की पढ़ाई को लेकर बहुत जागरुक थे। उन्हें खूब पढ़ाया लिखाया। मगर पर्देदारी के साथ। ये बताने की जरुरत नहीं उस दौर ें लड़कियों के मन पर परिवार और इसके संस्कारों का असर कितना होता था। मगर मेरी बुआ लोगों की ज्यादातर सहेलियां मुसलमान ही रहीं...जिनके निकाह वगैरह में भी वो शरीक हुईं....बावजूद कि वो एक कट्टर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। एक अर्से तक संघ की शाखाओं में शामिल होने वाले मेरे चाचा की मित्रमंडली में इम्तियाज...जो दर्जी का काम करते थे....एबीसीडी (नाम भूल रहा हूं)....जो इक्कागाड़ी चलाते थे...और भी कई दूसरे मुसलमान शामिल थे। जो घर में होने वाले हर तीज त्यौहार पर मौजूद रहते थे। और उन्हें घर के सदस्य जैसा सम्मान मिलता था...। उम्र के साथ हर कोई अपनी अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गया...लेकिन आज भी अगर इनमें से कोई कहीं टकरा जाए....तो हम बच्चे सगे चाचा जैसा सम्मान देते हैं।


मेरा घर यूपी के गाजीपुर जिले के जमानियां कस्बे के पास एक गांव में है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में एक भी मुसलमान परिवार नहीं रहता। लेकिन घर के कपड़े लत्ते धोने वाली पड़ोस के गांव की धोबन मुसलमान है। सुहाग की चूड़ियां, बिंदी और फीता के लिए चाचियों को हमेशा चूड़िहारन का इंतजार रहता है। ये सोचकर कि अबकी बार कहीं चूड़िहारन को खाली हाथ ना लौटना पड़े। बाजार जाने पर भी महिलाएं अपना सामान नहीं ले आती हैं। चूड़िहारन भी मुसलमान है...और वो 10 किलोमीटर दूर हमारे गांव में चूड़ियां बेचने आती है...क्योंकि पूरे गांव की महिलाएँ...लड़कियां उसी की राह देखती रहती हैं। हमारा बाजार जमानियां है। बाबा के जिंदा रहने और उसके कुछ वक्त बाद तक...हमारे घर का सारा सामान जमानियां बाजार की माजिद मियां की दुकान से ही आता था...। रिश्ता गहरा था..ऐसे में नकद-उधारी में कोई दिक्कत नहीं होती थी...। बाबूजी ने जब कोचिंग क्लासेज खोला...तो उसमें सबसे ज्यादा तनख्वाह पर जिसे रखा..और जिस पर भरोसा किया वो थे बब्बू...यानि नफीस सिद्दीकी। बाद में जब स्कूल खोला तो अपने बाद स्कूल में जिस टीचर को सबसे ज्यादा तवज्चो दी...वो थे फख़रे आलम। ये कॉन्वेंट स्कूल अभी भी चल रहा है...। जमानियां में चल रहे स्कूलों में सबसे ज्यादा मोहम्मडन बच्चे हमारे स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल में पिछले 7 सालों से एक ही दाई है। जो मुसलमान है...। वो हमें भैया भैया करती रहती है...हम जब भी घर जाते है हाल चाल पूछने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। स्कूल में चलने वाली गाड़ियों में अक्सर बैटरी वगैरह की दिक्कतें आती रहती हैं। जमानियां कस्बे में यूं तो बैटरी का धंधा करने वाले कई हिंदू दुकानदार हैं। मगर चाचा हमेशा ....मियां के यहां जाते हैं।


घर में लोगों के बीमार पड़ने का सिलसिला लगा ही रहता है....ऐसे में अस्पताल जाने पर उसकी गेट पर मेडिकल स्टोर चला रहे जमाल चाचा ही डॉक्टर के पास ले जाते हैं। जाहिर है...दवाईयां उनके ही दुकान से ली जाती हैं....पैसा हो तो भी...ना हो तो भी। जबकि उनकी दुकान के अगल बगल कितने ही हिंदुओं की दुकानें हैं। यही नहीं बाजार में सैलून चलाने वालों की कोई कमी नहीं... लेकिन जब भी बाबूजी को दाढ़ी बनवानी होती है या फिर बाल कटवाने होते हैं...वो वकील नाई के यहां ही जाते हैं...जो कायदे से अभी तक एक गुमटी भी नहीं ले सके। बचपन में हमारे लिए वो मजबूरी जैसे थे। बाकी कहीं से भी बाल कटवाने की आजादी नहीं थे...हम चिढ़ते थे...लेकिन बाबूजी कहते थे...बिचारा गरीब है.. उसे दो पैसा मिल जाए तो क्या हर्ज है। बाबूजी बड़े साहित्यकार हैं....कवि हैं...ये अलग बात है छोटी जगह पर रहते हैं...। लिहाजा उनके शिष्यों की भी कोई कमी नहीं है..। आजकल बाबूजी का एक नया शिष्य बना है। उसकी उम्र मुझसे एक दो साल कम होगी। कविताएं लिखने का उसे शौक है...। लिहाजा उसने बाबूजी को अपना गुरु बना लिया है। उसका नाम है तौसीफ। लेकिन उसने अपने नाम के आगे सत्यमित्रम् जोड़ लिया है। मेरा नाम विवेक सत्यमित्रम् है। मुझे इस बात का गर्व था कि मेरा नाम दुनिया भर में वन पीस है। लिहाजा जब तौसीफ ने अपने नाम के साथ सत्यमित्रम् जोड़ा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन ये नाम रखने वाले बाबूजी ने बेहद आराम से कह दिया... अरे भाई क्या हर्ज है...इसमें।


ये तो वो लोग हैं..जिनका ध्यान मुझे हो आया। न जाने कितने ही लोग छूट गए होंगे...जो मुसलमान होकर भी हमारी जिंदगी में इस कदर शामिल रहे...हैं...और रहेंगे कि हम चाहें तो भी उन्हें अलग नहीं कर पाएंगे। और कहीं से भी ये सब कुछ प्रायोजित नहीं है...बेहद सहज है। बावजूद इसके अगर मैं जामियानगर में हुई मुठभेड़ को गलत साबित करने के तर्क नहीं गढ़ता...अगर मैं ये नहीं मान लेता कि भारत में होने वाले दंगे हमेशा हिंदुओं की वजह से होते हैं...अगर मैं बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड पर घड़ियाली आंसू नहीं बहाता तो सेकुलरिज्म के तथाकथित ठेकेदार मुझे सांप्रदायिक बताने में कुछ सेकेंड भी नहीं लगाएंगे। और आपको बता दूं.. ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। लाखों लोगों की जिंदगियां ऐसी ही हैं। मगर जब भी बात होती है आतंकवाद की...धमाकों की...दहशत की...और उसमें नाम आता है किसी मुसलमान का...तो मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग जो इस कौम के पक्ष में दलीलें गढ़कर..बेवजह चीख पुकार मचाकर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कभी नहीं करते...उन्हें एक झटके में हिंदूवादी करार दे दिया जाता है, जिन्हें मुसलमान फूटी आंख नहीं सुहाते। जबकि आतंकवाद या दहशतगर्दी पर एक आम आदमी की सहज प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होगी। उसे सरकार, पुलिस, प्रशासन पर भरोसा करना ही होगा...जब तक कि असलियत कोई और जाहिर न कर दे। लेकिन वो जो आम नहीं हैं....जो कुछ खास हैं...या साफ शब्दों में कहें तो बुद्धिजीवी हैं....उन्हें तो हर बात में हिंदुओं को कोसने....बेजा मामलों में भी मुसलमानों का पक्ष लेने में अजीब सा सुख मिलता है।


दरअसल ये वो लोग हैं जो अपनी सेकुलर छवि को बरकरार के रखने के लिए समाज को हिंदू और मुसलमान में बांटकर रखना चाहते हैं। वरना.... अगर एक हिंदू नन का रेप कर दे...तो इन्हें तत्काल यकीन हो जाता है...लेकिन एक मुसलमान धमाके कर दे...तो इनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है....इन्हें लगता है कि उसे बेवजह फंसाया जा रहा है। मैं भी मानता हूं...बहुत से मामले फर्जी हो सकते हैं...पर हर बार तो ऐसा नहीं होता...। लेकिन सेकुलर दिखने के फैशन के कद्रदान बुद्धिजीवियों को हर बार यही लगता है।



क्या हम सच और झूठ... सही और गलत की बुनियाद पर चीजें तय नहीं कर सकते...। बेवजह एक बड़ी आबादी, जो खुद अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा के साथ जी रही है, उसे और डराकर सेकुलरिज्म के ये ठेकेदार आखिर क्या हासिल कर लेंगे...। हिंदू या मुसलमान को नहीं, समाज के बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करने की जरुरत है...जो पाखंडी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं...उनके वाद का ब्रांड चाहे जो हो। यकीन मानिए....मुसलमानों पर अत्याचार की मनगढंत कहानियों का मेरे घर पर और यहां की सामाजिक बुनावट पर कोई असर नहीं पड़ता....लेकिन तब क्या होगा...जब बुद्धिजीवियों के जहरीले विचारों का जहर एक दिन मेरे गांव...मेरे कस्बे....मेरे घर तक पहुंच जाएगा। बस करो बुद्धिजीवियों,...सच की बात करो...झूठ की बात करो..सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...। क्योंकि मैं अपने आने वाली पीढ़ी को अपने परिवार की यही मजहबी बुनावट सौंपना चाहता हूं....जिसे तुम लोग बर्बाद करने पर तुले हो।