Saturday, November 29, 2008

सामूहिक बलात्कार का हलफनामा...!

भारत में आतंकवादी हमले आम बात हो चले हैं। महामहिम शिवराज पाटिल जी की मेहरबानी से अब तो हम इसके आदती होते जा रहे हैं। हमारे भीतर एक किस्म की सहजता डेवलप होती जा रही है ऐसे हादसों को लेकर। मुंबई में इस बार जो कुछ हुआ उसे मैं निजी तौर पर मुल्क की अस्मिता का सामूहिक बलात्कार मानता हूं। नीचे लिखे हुए शब्द काफी गुस्से से उपजे हैं...लिहाजा अगर आपको चुभें भी तो...तर्क की कसौटी पर कोई बहस मत खड़ा करिएगा। क्योंकि...मैं और मेरी भावनाएं हमेशा जिम्मेदारी के दायरे में रहने को बाध्य नहीं हैं। - विवेक सत्य मित्रम्


Scene-1

ताज से धुआं निकल रहा है-
गोलियों की गड़गड़ाहट में-
उत्तेजना का संगीत कौंध रहा है-
कैमरों की निगाह से कुछ भी-
कहीं भी बच नहीं सकता-
पुलिस, सेना और पत्रकार-
एकदम मुस्तैद...चौकस खड़े हैं-
जान जोखिम में डालकर-
बहुतों के सीने गर्व से फूले हुए हैं-
शायद चार या पांच इंच तक-

Scene-2

जिंदा बच गए लोग-
अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं-
हाय..! उन्हीं की लकीरों में लिखा था-
उन कायरों के सीने पर लटकना-
चमचमाता तमगा बनकर-
उन्हीं को देना था इकबालिया बयान-
देश की आर्थिक राजधानी के-
सामूहिक बलात्कार का।
उन्हें अपनी जिंदगी पर तरस आ रहा है-
मगर वो करते भी तो क्या-
मंदी के इस दौर में उनका बचना जरुरी था।

Scene-3

उधर मां के दूध से महरुम रहे कुछ हिजड़े -
मजबूर शिखंडियों की आड़ में-
एके 47 से आतिशबाजी में मशगूल हैं-
वो जानते हैं, खुदा उन्हें माफ कर देगा-
क्योंकि दुनिया में जेहाद जरुरी है-
और खून खराबा उनकी मजबूरी है-

Scene-4

वो देखो....उधर उस नरीमन हाउस को-
आखिरकार 41 घंटे में एक खंडहर-
आबाद हो गया है...काली वर्दी वालों से-
क्योंकि मातम का वक्त नहीं है-
इसलिए लाशों की गिनती जरुरी है-

Scene-5

एक लिजलिजा शेर भिनभिना रहा है-
कोतवाल भी अबकी सावधान है-
सूट बदलने का शौक नहीं फरमा सका-
सफेद कोट पहनी तो पहनी-
दिल्ली काफी दूर थी-
सो कालिख से काम चला लिया।

Scene-6

दुशासन को न्यौता भेजा है-
आखिर जांच तो होनी है-
भला उससे बेहतर कौन बता पाएगा-
अभी कितनी साड़ी बाकी है-

Scene-7

चुनावी मौसम में-
कुछ सफेदपोश भेड़िये तो दिख गए-
पर, अभी तक धरतीपुत्र नजर नहीं आया-
शायद वो गिनने में जुटा है-
मारे गए लोगों में भइया लोग कितने हैं-
और बचाने वालों में मराठी कितने-

Scene-8

खैर, तमाशा खत्म होने को है-
और मैं परेशान हूं, हमेशा की तरह-
आखिर, अब क्या रह गया-
टीआरपी के तराजू में तोलने के लिए ।

Tuesday, October 7, 2008

...क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है !

आप भी हर रोज मिलते हैं उन लड़कियों से। कभी पार्क में, कभी मॉल में, कभी किसी रेस्टोरेंट में तो...कभी राह चलते सड़क पर। वो जब खुश होती हैं...तब भी उनके चेहरे पर खुशी के भाव नहीं होते। वो अपने आशिक की बाहों में बाहें डालकर तो चलती हैं...मगर बेफिक्र नहीं होतीं। जब तक वो सिनेमाहाल के घुप्प अंधेरे में गुम नहीं हो जातीं...उनके चेहरे पर आने वाले भाव पकड़ पाना आसान नहीं होता। देखकर तो कोई ये बता ही नहीं सकता...इस वक्त ये लड़की खुश है...दुखी है...परेशान है....या फिर ये बिल्कुल सामान्य है।

ऐसी लड़कियां परिवार के अनगढ़े कानूनों को तो लांघ जाती हैं...मगर उनके साए आजादी के खयाल के साथ साथ इनका पीछा करते हैं। ये लड़कियां आजादी की जिन अगली सीढ़ियों पर कदम रखती हैं... समाज और संस्कार के बंधन वहां पहले से जाल बिछाए बैठे रहते हैं। अपने घर से बीसियों किलोमीटर दूर किसी अनजान से शापिंग मॉल या फिर पार्क में चले जाने के बाद भी उन्हें जानी पहचानी नजरों का डर सताता ही रहता है। हर वक्त उनके जेहन में यही खयाल डेरा डाले रहता है...कहीं सामने से आ रही भीड़ में कोई जान पहचान वाला ना हो। कोई रिश्तेदार....कोई पड़ोस का अंकल या फिर शक्कर उधार मांगने आने वाली आंटी जी।

इन लड़कियों को आपने भी खूब ताड़ा होगा। इन्हें देखकर आपके जेहन में भी एकबारगी “गुड़ खाए, गुलगुल्ले से परहेज करे” वाला मुहावरा जरुर कौंधा होगा। मगर वो भी क्या करें। वो दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर या फिर चेन्नई जैसे शहरों में रहती जरुर हैं..मगर उनके मन की खिड़कियां उस मिडिल क्लास परिवार की जकड़न में खुलती हैं। जहां आजाद खयाल लड़की होना...एक फैशन तो हो सकता है..हकीकत कभी नहीं। ये वो लड़कियां हैं जो आजादी की बंदिशों के बीच जी रही हैं। दरअसल वो आजादी के रास्ते पर निकल तो पड़ी हैं...मगर उन्हें ट्रैफिक के कायदे कानून मालूम नहीं। लिहाजा, वो थोड़ा संभल संभलकर चलना चाहती हैं।

ये लड़कियां मिनी स्कर्ट तो पहनती हैं...लेकिन उसके नीचे वो टाइट फिट (काला कपड़ा...मालूम नहीं इसे क्या कहते हैं) पोशाक पहनती हैं....जिनमें बस एक आभास सा रह जाता है मिनी स्कर्ट पहनने का। ये लड़कियां शार्ट टॉप..और लो वेस्ट जींस तो पहनती हैं....मगर हर दो मिनट पर अपना टॉप पीछे से खींचती रहती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती..ये लड़कियां डीप नेक का सूट सिलवा तो लेती हैं....मगर दुपट्टा सरक ना जाए...इसकी चिंता में दुबली होती रहती हैं। ये लड़कियां अपने प्रेमी के साथ हाथ पर हाथ रखे घंटों रेस्टोरेंट में रोमांस कर सकती हैं। लेकिन सड़क पर चलते हुए अपने कंधों या कमर पर उनका हाथ उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। ये वो लड़कियां हैं..जो मॉडर्न कपड़े दरअसल इसीलिए पहनती हैं कि लोग उन्हें देखें...उन पर गौर फरमाएं....लेकिन ऐसा कर लेने के बाद हर वक्त उनकी नजर इसी बात पर होती है...कहीं कोई उन्हें देख तो नहीं रहा।

आखिर वो ऐसा क्यों करती हैं। वो क्यों नहीं मान लेतीं कि वो कभी आजादी की उस परिकल्पना को नहीं जी पाएंगी जिसे वो इन कपड़ों में तलाशने की कोशिश में हैं। मगर वो भी क्या करें..वो समाज के उस मिडिल क्लास तबके से आती हैं....जहां पढ़ाई लिखाई तो ऊंची कराई जाती है। मगर साथ ही ये हिदायत भी दी जाती है कि किताबी बातें सिर्फ किताब तक रहें तो अच्छा। लेकिन तेजी से बदल रही दुनिया में खुद पर पिछड़ा होने का टैग लग जाने का डर भी उन्हें अंदर ही अंदर सालता रहता है। उन्हें लगता है मानो शादी से पहले जिंदगी में एक ब्वाय फ्रेंड होना उतना ही जरुरी है...जितना कोई दूसरा काम। उन्हें लगता है..अगर अभी चूक गए तो शायद फिर कभी इन कपड़ों से साबका नहीं होगा..। मगर ये सब कुछ इनकी खयालों की दुनिया का हिस्सा होता है...हकीकत में वो अपने उसूलों, संस्कारों और मर्यादाओं में इस कदर जकड़ी होती हैं...कि कसमसाहट भी नजर नहीं आती।

खैर, अगर आज तक आप ऐसी लड़कियों से नहीं मिले...तो जनाब जब आप रेड लाइट पर फंस जाएं तो बाइक सवार लड़के के पीछे बैठी लड़की को गौर से देखिए...। उसके बैठने का अंदाज आपको बता देगा...ये ओरिजनल मॉडर्न लड़की है...या फिर मेरे इस आर्टिकल की कैरेक्टर... जो आजादी की खुशफहमी को भरपूर जीना चाहती है.... उसे फिक्र तो है...मगर अपनी बेफिक्री की। वो आजाद तो होना चाहती है...लेकिन बंदिशों के साथ साथ। क्योंकि ये लड़की मिडिल क्लास की है।

Sunday, October 5, 2008

क्या मिलेगा तुम्हें मुसलमानों को धोखे में रखकर !

( बाटला हाउस...जामिया नगर....एनकाउंटर....और अरेस्ट्स को लेकर ब्लॉग वर्ल्ड में अभी भी तहलका मचा हुआ है। अलग-अलग लोग अपनी बात रख रहे हैं। मेरा ये लेख थोड़ा लंबा जरुर हो गया है। मगर जो कुछ मैंने लिखा है..उसका सरोकार आम आदमी की जिंदगी से है....जो अपनी मर्जी से हिंदू या मुसलमान नहीं बना...और आज भी वो सिर्फ इंसान है...लेख एक तरह से सवालों का पुलिंदा है...उस शख्स का जिसे डर लगता है कि कहीं लोग उसे मुस्लिम विरोधी तो नहीं मानते...क्योंकि वो बुद्धिजीवियों की तरह दोमुंहा नहीं है, जो सब कुछ नाप तौलकर करते हैं। - विवेक सत्य मित्रम् )


विशुद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ। जाहिर तौर पर संस्कार भी वैसे ही मिले। जब भी कोई मुसलमान चौखट पर जाता तो चाय देते वक्त घर में शीशे का गिलास निकाला जाता। जिसमें मैंने कभी घर के किसी सदस्य को कभी चाय पीते नहीं देखा। लेकिन मन में कभी कोई सवाल खड़ा नहीहुआ। ऐसा लगा कि एक नियम है। लिहाजा सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। मेरे घर में मेरे बाबूजी की पैदाइश से पहले से ही एक बेवा रहती थी। उसका मजहब इस्लाम था। मगर वो घर के एक सदस्य के जैसी थी। इस बारे में पहले भी लिख चुका हूं। बाबूजी की पैदाइश साल 1954 की है। ये बताने की जरुरत नहीं, उस दौर में गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हालात कैसे रहे होंगे। समाज के तमाम विरोधों के बावजूद वो मुसलमान बेवा हमारे घर में रही...औऱ वो आज भी मौजूद है।


बाबूजी..ने जिंदगी में शायद ही कभी ईमानदारी और सच्चाई को ताक पर रखा हो...लेकिन अपने बेस्ट फ्रेंड के लिए एक दफा उन्होंने उसकी जगह पर परीक्षा दी.. इस खतरे के बावजूद कि पकड़े जाने पर बेइज्जती के साथ-साथ उनका करियर भी खत्म हो सकता था। लेकिन खाने पीने की दिक्कतों के दौर से गुजर रहे अपने मुसलमान दोस्त की परेशानियां उन्हें कहीं बड़ी लगीं। आज भी इस दुनिया में उनके इकलौते स्ट फ्रेंड वही जावेद चाचा हैं। बाबा बुआ लोगों की पढ़ाई को लेकर बहुत जागरुक थे। उन्हें खूब पढ़ाया लिखाया। मगर पर्देदारी के साथ। ये बताने की जरुरत नहीं उस दौर ें लड़कियों के मन पर परिवार और इसके संस्कारों का असर कितना होता था। मगर मेरी बुआ लोगों की ज्यादातर सहेलियां मुसलमान ही रहीं...जिनके निकाह वगैरह में भी वो शरीक हुईं....बावजूद कि वो एक कट्टर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। एक अर्से तक संघ की शाखाओं में शामिल होने वाले मेरे चाचा की मित्रमंडली में इम्तियाज...जो दर्जी का काम करते थे....एबीसीडी (नाम भूल रहा हूं)....जो इक्कागाड़ी चलाते थे...और भी कई दूसरे मुसलमान शामिल थे। जो घर में होने वाले हर तीज त्यौहार पर मौजूद रहते थे। और उन्हें घर के सदस्य जैसा सम्मान मिलता था...। उम्र के साथ हर कोई अपनी अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गया...लेकिन आज भी अगर इनमें से कोई कहीं टकरा जाए....तो हम बच्चे सगे चाचा जैसा सम्मान देते हैं।


मेरा घर यूपी के गाजीपुर जिले के जमानियां कस्बे के पास एक गांव में है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में एक भी मुसलमान परिवार नहीं रहता। लेकिन घर के कपड़े लत्ते धोने वाली पड़ोस के गांव की धोबन मुसलमान है। सुहाग की चूड़ियां, बिंदी और फीता के लिए चाचियों को हमेशा चूड़िहारन का इंतजार रहता है। ये सोचकर कि अबकी बार कहीं चूड़िहारन को खाली हाथ ना लौटना पड़े। बाजार जाने पर भी महिलाएं अपना सामान नहीं ले आती हैं। चूड़िहारन भी मुसलमान है...और वो 10 किलोमीटर दूर हमारे गांव में चूड़ियां बेचने आती है...क्योंकि पूरे गांव की महिलाएँ...लड़कियां उसी की राह देखती रहती हैं। हमारा बाजार जमानियां है। बाबा के जिंदा रहने और उसके कुछ वक्त बाद तक...हमारे घर का सारा सामान जमानियां बाजार की माजिद मियां की दुकान से ही आता था...। रिश्ता गहरा था..ऐसे में नकद-उधारी में कोई दिक्कत नहीं होती थी...। बाबूजी ने जब कोचिंग क्लासेज खोला...तो उसमें सबसे ज्यादा तनख्वाह पर जिसे रखा..और जिस पर भरोसा किया वो थे बब्बू...यानि नफीस सिद्दीकी। बाद में जब स्कूल खोला तो अपने बाद स्कूल में जिस टीचर को सबसे ज्यादा तवज्चो दी...वो थे फख़रे आलम। ये कॉन्वेंट स्कूल अभी भी चल रहा है...। जमानियां में चल रहे स्कूलों में सबसे ज्यादा मोहम्मडन बच्चे हमारे स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल में पिछले 7 सालों से एक ही दाई है। जो मुसलमान है...। वो हमें भैया भैया करती रहती है...हम जब भी घर जाते है हाल चाल पूछने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। स्कूल में चलने वाली गाड़ियों में अक्सर बैटरी वगैरह की दिक्कतें आती रहती हैं। जमानियां कस्बे में यूं तो बैटरी का धंधा करने वाले कई हिंदू दुकानदार हैं। मगर चाचा हमेशा ....मियां के यहां जाते हैं।


घर में लोगों के बीमार पड़ने का सिलसिला लगा ही रहता है....ऐसे में अस्पताल जाने पर उसकी गेट पर मेडिकल स्टोर चला रहे जमाल चाचा ही डॉक्टर के पास ले जाते हैं। जाहिर है...दवाईयां उनके ही दुकान से ली जाती हैं....पैसा हो तो भी...ना हो तो भी। जबकि उनकी दुकान के अगल बगल कितने ही हिंदुओं की दुकानें हैं। यही नहीं बाजार में सैलून चलाने वालों की कोई कमी नहीं... लेकिन जब भी बाबूजी को दाढ़ी बनवानी होती है या फिर बाल कटवाने होते हैं...वो वकील नाई के यहां ही जाते हैं...जो कायदे से अभी तक एक गुमटी भी नहीं ले सके। बचपन में हमारे लिए वो मजबूरी जैसे थे। बाकी कहीं से भी बाल कटवाने की आजादी नहीं थे...हम चिढ़ते थे...लेकिन बाबूजी कहते थे...बिचारा गरीब है.. उसे दो पैसा मिल जाए तो क्या हर्ज है। बाबूजी बड़े साहित्यकार हैं....कवि हैं...ये अलग बात है छोटी जगह पर रहते हैं...। लिहाजा उनके शिष्यों की भी कोई कमी नहीं है..। आजकल बाबूजी का एक नया शिष्य बना है। उसकी उम्र मुझसे एक दो साल कम होगी। कविताएं लिखने का उसे शौक है...। लिहाजा उसने बाबूजी को अपना गुरु बना लिया है। उसका नाम है तौसीफ। लेकिन उसने अपने नाम के आगे सत्यमित्रम् जोड़ लिया है। मेरा नाम विवेक सत्यमित्रम् है। मुझे इस बात का गर्व था कि मेरा नाम दुनिया भर में वन पीस है। लिहाजा जब तौसीफ ने अपने नाम के साथ सत्यमित्रम् जोड़ा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन ये नाम रखने वाले बाबूजी ने बेहद आराम से कह दिया... अरे भाई क्या हर्ज है...इसमें।


ये तो वो लोग हैं..जिनका ध्यान मुझे हो आया। न जाने कितने ही लोग छूट गए होंगे...जो मुसलमान होकर भी हमारी जिंदगी में इस कदर शामिल रहे...हैं...और रहेंगे कि हम चाहें तो भी उन्हें अलग नहीं कर पाएंगे। और कहीं से भी ये सब कुछ प्रायोजित नहीं है...बेहद सहज है। बावजूद इसके अगर मैं जामियानगर में हुई मुठभेड़ को गलत साबित करने के तर्क नहीं गढ़ता...अगर मैं ये नहीं मान लेता कि भारत में होने वाले दंगे हमेशा हिंदुओं की वजह से होते हैं...अगर मैं बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड पर घड़ियाली आंसू नहीं बहाता तो सेकुलरिज्म के तथाकथित ठेकेदार मुझे सांप्रदायिक बताने में कुछ सेकेंड भी नहीं लगाएंगे। और आपको बता दूं.. ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। लाखों लोगों की जिंदगियां ऐसी ही हैं। मगर जब भी बात होती है आतंकवाद की...धमाकों की...दहशत की...और उसमें नाम आता है किसी मुसलमान का...तो मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग जो इस कौम के पक्ष में दलीलें गढ़कर..बेवजह चीख पुकार मचाकर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कभी नहीं करते...उन्हें एक झटके में हिंदूवादी करार दे दिया जाता है, जिन्हें मुसलमान फूटी आंख नहीं सुहाते। जबकि आतंकवाद या दहशतगर्दी पर एक आम आदमी की सहज प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होगी। उसे सरकार, पुलिस, प्रशासन पर भरोसा करना ही होगा...जब तक कि असलियत कोई और जाहिर न कर दे। लेकिन वो जो आम नहीं हैं....जो कुछ खास हैं...या साफ शब्दों में कहें तो बुद्धिजीवी हैं....उन्हें तो हर बात में हिंदुओं को कोसने....बेजा मामलों में भी मुसलमानों का पक्ष लेने में अजीब सा सुख मिलता है।


दरअसल ये वो लोग हैं जो अपनी सेकुलर छवि को बरकरार के रखने के लिए समाज को हिंदू और मुसलमान में बांटकर रखना चाहते हैं। वरना.... अगर एक हिंदू नन का रेप कर दे...तो इन्हें तत्काल यकीन हो जाता है...लेकिन एक मुसलमान धमाके कर दे...तो इनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है....इन्हें लगता है कि उसे बेवजह फंसाया जा रहा है। मैं भी मानता हूं...बहुत से मामले फर्जी हो सकते हैं...पर हर बार तो ऐसा नहीं होता...। लेकिन सेकुलर दिखने के फैशन के कद्रदान बुद्धिजीवियों को हर बार यही लगता है।



क्या हम सच और झूठ... सही और गलत की बुनियाद पर चीजें तय नहीं कर सकते...। बेवजह एक बड़ी आबादी, जो खुद अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा के साथ जी रही है, उसे और डराकर सेकुलरिज्म के ये ठेकेदार आखिर क्या हासिल कर लेंगे...। हिंदू या मुसलमान को नहीं, समाज के बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करने की जरुरत है...जो पाखंडी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं...उनके वाद का ब्रांड चाहे जो हो। यकीन मानिए....मुसलमानों पर अत्याचार की मनगढंत कहानियों का मेरे घर पर और यहां की सामाजिक बुनावट पर कोई असर नहीं पड़ता....लेकिन तब क्या होगा...जब बुद्धिजीवियों के जहरीले विचारों का जहर एक दिन मेरे गांव...मेरे कस्बे....मेरे घर तक पहुंच जाएगा। बस करो बुद्धिजीवियों,...सच की बात करो...झूठ की बात करो..सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...। क्योंकि मैं अपने आने वाली पीढ़ी को अपने परिवार की यही मजहबी बुनावट सौंपना चाहता हूं....जिसे तुम लोग बर्बाद करने पर तुले हो।

Thursday, September 25, 2008

पुण्य प्रसून वाजपेयी जी…कम से कम आप से ये उम्मीद नहीं थी !

( पुण्य प्रसून वाजपेयी जी ने अपने ब्लाग पर जामिया नगर में हुई मुठभेड़ के बारे में अलग नजरिया पेश किया था। मैं मूल रुप से डेस्क पर काम करने वाला पत्रकार हूं। मौके पर पहुंचने वाले रिपोर्टर की कहानी पर सवाल खड़ा करना मेरे लिए तार्किक नहीं है। इस मुठभेड़ को लेकर अलग अलग लोग जुदा-जुदा बातें कर रहे हैं, जो खुद वहां पहुंचे थे। मगर मीडिया में सिर्फ एक पक्ष ही दिख रहा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के लेख पर लिखने की वजह सिर्फ ये थी कि मैं तहेदिल से चाहता था कि कहानी का दूसरा पहलू भी सामने आए। मेरा लहजा थोड़ा कठोर हो गया है..मगर निजी तौर पर उन्हें निशाना बनाना मेरी मंशा नहीं है। ये सफाई मुझे इसलिए देनी पड़ रही है..क्योंकि उनके साथ काम कर चुके / कर रहे/ जानने वाले ..तमाम लोग इस मसले पर जिस तरह से चटखारे ले रहे हैं... मुझे लगा विचारों की लड़ाई में कहीं कोई गलत संदेश तो नहीं जा रहा। दूसरी बड़ी वजह ये है कि मेरे और पुण्य जी के लेख को भड़ास 4 मीडिया पर भी छाप दिया गया है...। लेकिन जो शीर्षक ("पुण्य प्रसून के ब्लाग लेख पर उठा विवाद") दिया गया है...मैं उससे कतई सहमत नहीं हूं...। विवाद खड़ा करना मेरा मकसद नहीं था...मैंने सिर्फ अपने दिल की बात कही है.. मैं सचमुच चाहता हूं.. सच्चाई सामने आनी चाहिए... क्योंकि पत्रकार होने के नाते हमारा काम यही है। पुण्य प्रसून जी सचमुच बड़े पत्रकार हैं...सम्माननीय हैं.....और ये मानने में मुझे कोई हर्ज नहीं है कि हममें से ज्यादातर लोग उनके जैसा होने की हसरत रखते हैं। मगर अपनी बात कहने का हक हम सभी को है.. मैंने बस वही किया है।)
पुण्य प्रसून वाजपेयी जी बड़े पत्रकार हैं। शायद अपने चैनल पर उनकी चली नहीं, लिहाजा वो ब्लाग की रणभूमि में उतर आए। उनके होते हुए भी, जी न्यूज ने मुठभेड़ में मारे गए मोहन चंद शर्मा को शहादत के फूल चढ़ाए गए। काल..कपाल..महाकाल जैसे प्रोग्राम्स दिखाकर भी टीआरपी सुधारने में नाकाम रहा ये चैनल भला बाजार का दबाव कहां तक झेल पाता। जिस जनभावना का खयाल रखते हुए बाकी चैनलों ने मोहनचंद शर्मा को शहादत से नवाजा...शायद वैसा ही दबाव जी न्यूज पर भी रहा हो। कुल मिलाकार पुण्य प्रसून जी मजबूर हुए.. वो खबर पढ़ने के लिए जिस पर उन्हें रत्ती भर भी यकीन नहीं था। कम से कम उनके ब्लाग पर छपे लेख से मेरे जैसे कम अक्ल इंसान तक यही संदेश पहुंचा। खैर, पुण्य प्रसून वाजपेयी जी ने अपने लेख में अपने दिल की बात कही। मुझे मालूम नहीं.. बाटला हाउस की तीसरी मंजिल की बातें सही हैं.. या उन्हें किसी विश्वस्त सूत्र से ऐसा पता चला है। मगर इतना जरुर है...उन्होंने जिस अंदाज में कुछ भी बिना खुलकर कहे.....कह दिया है.. वो कोई बड़ा पत्रकार ही कर सकता है। अगर आप लेख को गौर से पढ़ें तो उन्होंने एक दफा भी ये नहीं लिखा कि वो जामिया नगर में हुई मुठभेड़ को फर्जी मानते हैं। उन्होंने तो बस कुछ सवाल हवा में उछाल दिए हैं, जिन्हें हमारे आपके जैसे आम लोगों ने लपक लिया। आप इस लेख की बुनियाद पर ना तो उन पर एक खास समुदाय के तुष्टीकरण का आरोप जड़ सकते हैं.. ना ही एक बेबाक पत्रकार की भड़ास कह सकते हैं। क्योंकि ये लेख इतनी बुरी तरह से उलझा हुआ है...आप कहीं से भी कोई लूपहोल निकालकर उन्हें आतंकवादियों का हमदर्द साबित नहीं कर सकते। हालांकि इस पेचीदगी में वो अपनी बात बेहद सलीके से कह गये हैं। उनके अपने ब्लाग पर छपे इस लेख पर तमाम तरह की टिप्पणियां आई हैं...। कुछ बेवकूफ किस्म के लोगों ने उन्हें आतंकवादियों का हिमायती समझ लिया है.. तो कुछ ऐसे भी हैं...जो इस दबाव से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं कि वाजपेयी जी देश के उन गिने चुने पत्रकारों में हैं.. जिनकी जुबान से निकली हर बात पर आम आदमी भरोसा कर लेता है। मीडिया से जुड़े कुछ लोग इसी दबाव में लेख पढ़ते पाए गए...कि पुण्य प्रसून वाजपेयी जी....जी न्यूज के कंसल्टेंट एडीटर हैं। उनमें एकाध ऐसे लोग हैं। जो या तो उनके साथ काम कर चुके हैं.. या फिर निकट भविष्य में काम करने की हसरत रखते हैं। हां.. इनमें कुछेक लोगों ने उनसे सीधे सीधे लोहा लिया है... शायद ये वो लोग हैं.. जिन्हें या तो उम्मीद नहीं है.. कि कभी उन्हें नौकरी के लिए पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के पास जाना होगा. या फिर ये भी मुमकिन है कि अपने दिल की बात कहने में उन्हें डर नहीं लगता। वो बस सही और गलत में यकीन रखते हैं। खैर, जो भी हो..। निजी तौर पर मुझे ऐसा लगा कि अगर वाकई पुण्य प्रसून जी मानते हैं कि जो कुछ भी जामिया नगर में हुआ.. या फिर अभी भी हो रहा है... वो गलत है... फर्जी है। तो उन्हें इस बात को खुलकर रखना चाहिए। आखिरकार जर्नलिस्ट होने के नाते उनकी जवाबदेही बनती है कि सच्चाई को सामने ले आएं...। ब्लाग ब्लाग खेलना तो बच्चों का काम है। वो तो पत्रकारों की उस पीढ़ी से आते हैं.. जिन्होंने सही मायने में पत्रकारिता को जिया है। जिन्होंने न जाने कितने ही लोगों से हेड आन कॉलिजन करते हुए ये मुकाम हासिल किया है। मुझे मालूम है कि नौकरी करते हुए मालिक की एडिटोरियल पॉलिसी के खिलाफ जाना मुश्किल काम है...। लेकिन अगर सही मायने में नौकरी में दिक्कत आने का डर ही वो कारण है.. जिसकी वजह से जी न्यूज पर वो सच सामने नहीं आया..जो उस चैनल के आला पत्रकार को मालूम था.. तो कहीं न कहीं प्रसून जी वो तर्क खो देते हैं....जिसकी बुनियाद पर घुमा फिराकर ही सही..एनकाउंटर को फर्जी साबित करने की कोशिश हुई। साथ ही आप पुलिस और खुफिया एजेंसियों पर अंगुली उठाने का हक भी खो देते हैं..क्योंकि वो भी तो किसी ना किसी के दबाव में काम कर रहे हैं...। जब आप जैसा बड़ा पत्रकार नौकरी का रिस्क नहीं ले सकता जिसे अपने यहां बुलाने के लिए न जाने कितने चैनल बेताब होंगे... तो वो पुलिसवाले क्या लेंगे.. जिन्हें नौकरी पर आंच आने के बाद... सालों अदालतों के चक्कर लगाने पड़ेंगे...। और आप भी जानते हैं...अगर सरकार अपनी लाज बचाने के लिए फर्जी एनकाउंटर करा सकती है तो... अपने कारिंदों का क्या हस्र कर सकती है....। खैर, मेरा सिर्फ इतना आग्रह था...कि अगर आप सचमुच जानते थे.. कि पुलिस ने ज्यादती की है.. और जो कुछ भी हुआ.. वो फर्जी था...गलत था। तो ये बात ब्लाग पर नहीं आपके चैनल पर आनी चाहिए थी....। क्योंकि मेरे जैसे शख्स के लिए मुस्लिम समुदाय के उन साथियों को फेस करना मुश्किल हो जाता है... जो आप ही की तरह पुलिस, सरकार और मीडिया किसी पर यकीन नहीं करते। मगर कैमरे पर जाते ही आप ही की तरह वही भाषा बोलने लगते हैं... जो चैनल चाहता है.. मालिकान चाहते हैं। आखिर सच दिखाने की शपथ कौन निभाएगा...। अगर आप सचमुच इंसानियत के पैरोकार हैं...आप सही मायने में सही – गलत का फर्क करना जानते हैं.... तो वो सच आपके चैनल पर आना चाहिए..., जो आपको मालूम है। नहीं... अगर आप भी...हम जैसे अदने पत्रकारों की बिरादरी के हैं....तो कोई बात नहीं...जिसके लिए हम लिखते हैं.. आप भी लिखिए। वैसे आपको बता दूं आपकी पोस्ट पर अभी तक 25 टिप्पणियां आ गई थीं....और करीब 125 लोगों ने लेख पढ़ा...।

Tuesday, September 23, 2008

क्या आप लगाएंगे अपने फोन में कंडोम वाला रिंगटोन ?

जी नहीं, ये सवाल कतई नहीं है। दरअसल ये एक खुली चुनौती है। सिर्फ आपको नहीं...आप जैसे किसी भी शख्स को। अगर मामला नहीं जानते, तो आपको बता दूं। हाल ही में एड्स के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए NACO ने एक कंडोम वाला रिंगटोन जारी किया है। अगर आप ये रिंगटोन अपने फोन में लगा लें...और कोई फोन आए तो आपके फोन में कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम बजने लगेगा..। लेकिन मैं जानता हूं, आपकी हिम्मत नहीं है, आप ये रिंगटोन लगा लें...जबकि ये रिंगटोन बिल्कुल मुफ्त है। जिस देश में हम और आप रह रहे हैं... वहां शायद आज से 50 साल बाद भी ऐसा रिंगटोन लगाने की हिम्मत जुटाना बड़ा काम होगा। कितना वक्त बीत गया। टीवी की ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया रंगीन हो गई। मगर शायद ही कोई मां बाप हों.. जो कंडोम और सैनिटरी नैपकिन का विज्ञापन आते वक्त चैनल ना बदल देते हों। आप खुद ही सोचकर देखिए.. क्या आपने कभी अपने बेटे, बेटी या भाई-बहन को ये बताने की कोशिश की है..आखिर ये निरोध क्या बला है। बचपन में ना जाने कितनी ही बार मेरे जेहन में ये सवाल उठा कि बारिश में छाता लगाकर लड़का-लड़की जा रहे होते हैं... और अचानक गाना बजने लगता है.. प्यार हुआ..इकरार हुआ.. प्यार से फिर क्यों डरता है दिल...इस बीच फूफाजी अक्सर मुझे पानी लाने के लिए भेज देते हैं। जब ऐसा बार बार होने लगा तो मैं इस एड से एक तरह की नफरत करने लगा। हालत ये हो गई थी, ज्यों ये गाना आता... मुझे समझ में आ जाता कि अब फूफाजी को प्यास लगने ही वाली है... और यही होता भी था। निरोध, माला डी, व्हिस्पर, कॉपर टी... ऐसे कितने ही शब्द थे। जो मेरे लिए सवाल थे। कितनी ही बार बचपने में मैंने सीधे सीधे पूछ भी लिया...ये माला डी क्या होता है..। घर के बड़े ऐसे रिएक्ट करते जैसे किसी ने कुछ सुना ही ना हो। इस बात को करीब 15 साल बीत चुके हैं...मगर मैं जानता हूं...इन शब्दों का निषेध आज भी बदस्तूर जारी है। और ऐसा होना लाजिमी भी है। देश के जिस सबसे महान विश्वविद्यालय से बुद्धिजीवियों की फसल उपजती है... जहां सेक्स औऱ सेक्सुएलिटी पर बातचीत करना निषेध नहीं है....जहां देर रात तक लड़कों के हॉस्टल में लड़कियां विचरण करती रहती हैं... वहां भी जब कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई तो मानो खलबली मच गई। बात जेएनयू की है... भला वहां कंडोम वेंडिंग मशीन की क्या जरुरत थी। ये एक अलग मुद्दा हो सकता है। मगर...इतने खुले माहौल वाले जेएऩयू में भी शायद ही कोई छात्र या जरुरतमंद.. उस कंडोम वेंडिंग मशीन तक जाता हो। जब भी मैं वहां रहा, मैंने महसूस किया....वेंडिंग मशीन के बगल में लगी चाय की मशीन की ओर जाने वाले पर भी अनायास ही लोगों का ध्यान चला जाता...और तब तक वो उसे घूरते रहते..जब तक कि उन्हें इत्मीनान ना हो जाए कि वो चाय लेने गया है...कंडोम नहीं। जब जेएनयू में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं में इतनी झिझक बाकी है तो भला उस तबके की क्या हालत होगी...जिसे विरासत में ऐसी ही चीजें मिली हैं...और वो भी अपनी अगली पीढ़ी को बिल्कुल वही सही सलामत सौंप रहे हैं। यही है, हमारे समाज का वो दोमुंहापन...जहां लोग करना सब कुछ चाहते हैं..मगर उस पर बात करते हुए उनकी जुबान कांपने लगती है। चलते चलते आपको बता दूं... कंडोम वाला रिंगटोन लगाने की हिम्मत मैं खुद भी नहीं जुटा सकता...लेकिन इतना जरुर है...अपने भाई बहनों की मौजूदगी में अगर कंडोम का विज्ञापन आ जाए तो हर कोशिश करुंगा उनकी जिज्ञासा शांत करने की.. वो भी बात को घुमाए फिराए बिना ही।

Monday, September 22, 2008

मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...!



अगर ये लड़की उस टाइप की होती.. तो कहानी का शीर्षक कुछ और हो सकता था...लेकिन ऐसा नहीं था। वो कुछ अलग टाइप की लड़की थी.., ये बात अलग है.... आज भी गांवों और छोटे शहरों की ज्यादातर लड़कियां उसी के जैसी होती हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दो साल लड़कियों से सामान्य शिष्टाचार के बगैर ही गुजर गए..। सिविल की तैयारी फर्स्ट इयर से ही शुरु कर दी थी..लिहाजा यूनिवर्सिटी में क्लासेज अटेंड करना टाइम की बर्बादी लगता था। सब कुछ ठीक चल रहा था..लेकिन कहीं न कहीं जिंदगी में लड़की नाम की प्राणी का नहीं होना भी बेहद अखरता था। ये सब कुछ बेहद नेचुरल था। समय भागता जा रहा था, इस बीच कहीं न कहीं ये अहसास भी कुलबुला रहा था..ग्रेजुएशन करके पूरी तरह से पढ़ाई में जुट जाने के बाद लड़कियों से बातचीत तक का मौका नहीं मिलेगा। आखिरकार फिल्मों में दिखने वाली कॉलेज लाइफ की रुमानियत ने इतना मजबूर किया.. जानबूझकर मैंने थर्ड ईयर में मेडिवल हिस्ट्री की क्लासेज अटेंड करनी शुरु कीं, जिनका मैंने पहले के दो सालों में दर्शन भी नहीं किया था। और ऐसा पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत हुआ...। 18 साल की उम्र में बालिग होने का अहसास भी हिलोरें मार रहा था.. साथ ही साथ ये डर भी सता रहा था.. कॉलेज लाइफ बस यूं ही गुजर जाएगी। और मैं युवा हुए बगैर ही... सिविल की तैयारी करते करते बुजुर्गावस्था को प्राप्त हो जाउंगा। लिहाजा, मेडिवल हिस्ट्री में लड़कियों की बड़ी खेप होने की अफवाहों के बीच.....मैंने क्लास अटेंड करने शुरु कर दिए। यूं तो मैं इंग्लिश मीडियम का स्टूडेंट था। मगर लड़कियों की आबादी हिंदी मीडियम में ज्यादा होगी... इस कैलकुलेशन के हिसाब से हिंदी मीडियम में ही क्लास करना शुरु कर दिया...।
अफवाहों में दम था। क्लास में पहुंचने वाली आबादी में एक बड़ी खेप लड़कियों की थी। ये देखकर मेरा हौसला और बढ़ा। दिन चढ़ने तक बिस्तर में दुबके रहने वाला मेरे जैसा इंसान.. सुबह सुबह 7 बजे की क्लास में पहुंचने लगा। धीरे धीरे लड़कियों से भी जान पहचान बढ़ी। मगर जिस लड़की से अनायास ही बात करने का मन होता.. वो जब देखो तब किताबों में ही गोते लगाती रहती थी। कई बार तो हैरानी होती..जिस माहौल में लोग हंसी ठहाके लगा रहे होते... वो किताबों में कैसे खोई रहती। बहुत अजीब लगता..। लेकिन इसी अजीब की वजह से उससे बात करने की इच्छा प्रबल होती गई। अगले कुछ दिनों में मैंने हाय... हलो.. तक बात बढ़ाई....मगर इससे ज्यादा कोई दूसरी बात नहीं होती। इस लड़की की काया.. कुछ ऐसी थी.. कहां शुरु होती.. और कहां खत्म हो जाती.. इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। सुंदरता के बेहद फीजिकल मानदंडों पर वो कहीं भी खड़ी नहीं हो सकती थी। दिखने में बेहद सामान्य किस्म की । कद बमुश्किल 4 फुट और कुछ इंच। रंग गोरा.. लेकिन अजीब सा फीकापन लिए हुए। बाल लंबे....मगर उनमें इतना तेल...। यानि देखने में कोई भी ऐसी बात नहीं थी.. जो उस उम्र में मुझे किसी लड़की से बात करने के लिए मजबूर करे। फिर भी, उसकी चुप्पी...उसका एकाकीपन... मुझे उसकी ओर खींचता था। उस वक्त तक मेरी किसी लड़की से दोस्ती नहीं थी.. लिहाजा, एक दिन अचानक मेरे दिमाग में उससे दोस्ती करने का फितूर सवार हुआ। जबकि ना तो मैं उसकी ओर आकर्षित हो रहा था.. ना ही कोई रोमांटिक या भावनात्मक खिंचाव ही था। मेरे सपनों में आने वाली लड़कियों के मुकाबले वो कहीं नहीं ठहरती थी। फिर भी... मैं उससे दोस्ती करने पर आमादा हो गया। यूं तो किसी से दोस्ती करना बेहद सामान्य बात है.. लेकिन इस कहानी के उतार चढ़ाव के लिहाज से मैं "फितूर’’ और ‘आमादा’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं।
खैर, एक दिन मैंने उसके सामने दोस्ती का प्रस्ताव रख दिया। मैंने उससे कहा...’मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं...।’ ये सुनते ही वो परेशान हो उठी। उस दिन बिना कुछ बोले वो वहां से चली गई। अगले तीन चार दिनों तक उसका कोई अता पता नहीं चला। फिर एक दिन अचानक वो प्रगट हुई। क्लास खत्म होने के बाद उसने मुझे इशारों से बुलाया। मैं दोस्ती के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने की उम्मीद में विजयी भाव में उसके पास पहुंचा..। पर यहां तो पासा उल्टा पड़ गया था। उसने बिना लाग लपेट के साफ लहजे में कहा कि वो मेरी दोस्त नहीं बन सकती। जिस हिकारत भरे अंदाज में उसने ये बात कही.. मेरी सहज इच्छा.. मेरी जिद बन गई। मैंने एक लाइन में जानना चाहा....आखिर क्यों नहीं बन सकता मैं उसका दोस्त..। उसने कहा... वो इसका जवाब नहीं देना चाहती। मैंने फिर उसे कुरेदा.. पर वो कुछ कहे बिना ही वहां से चलती बनी। अब मुझे कुछ भी होश नहीं था, मैं क्या कर रहा हूं..। मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा। उसे ये बात बुरी लग रही थी। उसे लग रहा था, बाकी के सभी लोग उसी को देख रहे हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस से होते हुए.. वो जानबूझकर यूनिवर्सिटी रोड की ओर से निकलकर कटरा बाजार में चली गई। उसे लगा कि अब तक मैं जा चुका होउंगा..। मगर मैं अपने सवाल का जवाब मिले बिना मानने वाला नहीं था। मैं उससे एक निश्चित दूरी पर ठीक उसके पीछे ही चल रहा था। कुछ देर बाद जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वो सकपका गई...। अब उसके पास पीछा छुड़ाने का एक ही रास्ता था। वो फट से एक लेडीज टेलर की दुकान में घुस गई...। अपने आपे से बाहर निकल चुका मैं...उसके पीछे पीछे लेडीज टेलर की दुकान में घुस गया।अब तो जैसे उसका आखिरी दांव भी चूक गया था।
आखिरकार उसने मुझे एक कोने में बुलाया। और एक लगातार बोलती गई... "देखो...मैंने आज तक कभी किसी लड़के से बात तक नहीं की थी.. तुम वो पहले लड़के हो.. जिससे मैं थोड़ी बहुत बात करने लगी थी...लेकिन इसका मतलब ये नहीं है....मैं...(एक फुल स्टाप के बराबर चुप्पी).... मेरे पिताजी रेलवे में काम करते हैं.... हम लोग बिहार के रहने वाले हैं....हमारे घर में लड़कियों को पढ़ने की आजादी नहीं है... मैं घर में पहली लड़की हूं.. जिसे यूनिवर्सिटी में रेगुलर बीए करने का मौका मिला... मेरी तीन बहने हैं... और मैं उनमें सबसे बड़ी हूं....मेरे घर के लोग बहुत रुढ़िवादी हैं... हमारे घर में लड़कों से दोस्ती करने की आजादी नहीं है..... वैसे भी... मुझे इन चीजों में कोई इंटरेस्ट नहीं है... मैं तो पढ़ाई लिखाई पूरी करके....अपनी गुरुमां (कोई आध्यात्मिक गुरु) के आश्रम में चली जाऊंगी... प्लीज आइंदा से मेरा पीछा मत करना... तुम अच्छे लड़के हो... लेकिन मैं किसी से दोस्ती नहीं कर सकती... वैसे भी तुम्हें बता दूं.... मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...।" कहानी खत्म हो गई, पर उसके जेहन में कायम लड़कियों की उस कैटेगरी का पता नहीं चल पाया.. जिसमें शामिल हो जाने के भय मात्र से उसका चेहरा पीला पड़ गया था...।

Saturday, September 13, 2008

फीचर फिल्म का शेष भाग 13 साल बाद (?)

साल 1995...। तवार का दिन है। सुबह सुबह नींद खुलती है, और कानों में आ जा आई बहार, ओ...मेरे राजकुमार.. तेरे बिन रहा ना जाए..टाइप का कोई गाना बिना पूछे चला आ रहा है। जो मिंकू आम दिनों में उठते उठते ही ट्वायलेट के दर्शन करता था। आज वो ब्रश करने की बजाए सीधे टीवी रुम की ओर बढ़ जाता है। किचन मेचाय बन रही है। मम्मी पिछले आधे घंटे से आवाजें लगा रही हैं... उठो बच्चों... चलो ब्रश करो... चाय बन रही है। मगर अभी तक मिंकू के अलावा दूसरे बच्चे जगे नहीं हैं मिंकू के जगने की आहट मम्मी को मिल गई है। ये बात उनके आवाज लगाने के अंदाज से जाहिर होता है..। अब मम्मी और जोर जोर से आवाज लगा रही हैं। अरे जल्दी से ब्रश करके आओ, चाय ठंडी हो रही है। मगर मिंकू पर इसका कोई असर नहीं है। वो इस कदर टीवी के सामने जम गया है, मानो उसके हटते ही प्रलय आ जाएगी जब वो टीवी पर नजरें गड़ाए बैठा होता है, उसका मुंह भी खुल जाता है। यकीन मानिए... टीवी प्रेम का ऐसा अद्भुत नजारा अब देखने को नहीं मिल सकता। टीवी रुम में ही पापा भी मौजूद हैं। मगर आज वो अखबार में इस तरह डूबे हुए हैं, मानो महीने भर का खर्चा एक ही दिन में वसूल कर लेंगे। मिंकू को ये दृश्य सरासर नागवार गुजरता है। उसे लगता है मानो टीवी का अपमान हो रहा है। इस बीच मम्मी चाय रख जाती हैं। पापा चाय पी भी लेते हैं। मगर मिंकू को कुछ भी होश नहीं है। एक के बाद एक सदाबहार गाने... जो हर दूसरे तीसरे हफ्ते रिपीट हो जाते हैं। अब तो उसके दिमाग में हर गाने की डीवीडी भी बन गई है। सीन आने से पहले ही उसके जेहन में वो दृश्य कौंध जाता है। खैर, रंगोली... खत्म हो जाती है। अब तक उसे कई बार डांट पड़ चुकी है ब्रश करने के लिए.... लिहाजा वो रंगोली खत्म होने के बाद एक मिनट भी देरी किए बिना ब्रश करने चला जाता है, डर है, अगर ऐसा नहीं किया तो, 9 बजे चंद्रकांता देखने पर पाबंदी ना लग जाए। लिहाजा वो अच्छा बच्चा बन जाता है। और करीब 15-20 मिनट में सारे काम निपटाकर नाश्ता भी कर लेता है। आज के दिन मिंकूचमुच बदला हुआ है। जो मिंकू स्कूल जाने से पहले और आने के बाद बमुश्किल ही कॉपी किताब को हाथ लगाता है। वो इतवार के दिन जल्दी से काम निपटाकर सुबह सुबह पढ़ने बैठ जाता है। दरअसल, उसे पता है...अगर उसकी ओर से कोई लूपहोल रह गया तो उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसमालूम है, गुड्डी और विक्की भी जग गए हैं... लिहाजा चंद्रकांता तो वो किसी भी कीमत पर देख लेगा...मगर शाम में उसे फिल्म देखने से वंचित होना पड़ सकता है। लिहाजा वो ये दिखाने में कुछ भी उठा नहीं रखता कि वो कितनी पढ़ाई कर रहा है... आम तौर पर पढ़ाई करते हुए वो अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लेता है...मगर आज तो दोनों पल्ले दो तरफ हैं। ताकि घर के लोग उसे पढ़ते हुए तो देखें ही....साथ ही साथ टीवी की भी आवाज उसे साफ सुनाई देती रहे। क्योंकि उसकी सिर्फ नजरें किताब में हैं। जेहन में तो टीवी है। इस बीच वो दूसरे कमरे में लगी घड़ी पर भी नजरे इनायत कर आता है। जैसे ही 9 बजते हैं...उसके भीतर कुछ होने लगता है। ऐसा लगता है, दिल कुछ कहा रहा है...और दिमाग कुछ और कर रहा है। दिल बैठ रहा है... कहीं चंद्रकांता का कोई सीन छूट ना जाए...।मगर दिमाग में तो कुछ और चलरहा है। जिसके आगे वो चंद्रकांता के एकाध सीन की कुर्बानी देने को तैयार है। आखिरकार... आवाज आती है...नौगढ़-विजयगढ़ में थी तकरार... नौगढ़ का था..जो राजकुमार....चंद्रकांता से करता था प्यार...। ऐसा लगता है उसके पैर बेकाबू हो जाते हैं...और वो पहुंच ही जाता है टीवी रुम में। चंद्रकांता देखने के बाद वो अच्छे बच्चों की तरह नहा धोकर.. बिल्कुल टाइम पर खाना खा लेता है। और एक बार फिर वो अपने कमरे में दिन भर पढ़ने का नाटक करता रहता है... क्योंकि शाम पांच बजे उसे हर हाल में फिल्म देखनी है...कहीं पापा पढ़ाई नहीं करने का बहाना बनाकर उसे फिल्म देखने से रोक ना दें....। इसके लिए वो दिन भर तपस्या करता है। पांच बजे से कुछ पहले ही...हक के साथ वो टीवी ऑन करता है। फिल्म शुरु होती है। अब मिंकू पूरी तरह टीवी में समा जाता है...कब डेढ़ घंटे निकल जाता है। उसे कोई होश नहीं होता...और सामने आ जाता है। फीचर फिल्म का शेष भाग....बजे। वो बार बार घड़ी देखता है.. कब फिर से शुरु हो पिक्चर। समाचार खत्म हो जाता है औऱ प्रचार शुरु हो जाता है। तभी अचानक एक टेक्स्ट प्लेट आती है.. फीचर फिल्म का शेष भाग थोड़ी देर में। अब वो और भी बेताब हो उठता... टीवी वालों को मन भर भला बुरा कहता है.. और पिक्चर शुरु हो...उससे ठीक पहले बिजली चली आ जाती है। और न जाने कितनी ही फिल्में हैं..जिनका शेष भाग आज 13 साल बीतने के बाद भी वो कभी नहीं देख पाया है।

Friday, September 12, 2008

क्या आपने भी खिंचवाई है कभी अपनी नंगी तस्वीर ?

इसी साल मार्च की बात है। चैनल की मारामारी के बीच बहन (बुआ की लड़की) की शादी आ पड़ी। हम भाई-बहनों की जेनरेशन में पहली शादी थी। लिहाजा बमुश्किल मिली दो दिन की छुट्टी में हैदराबाद पहुंच गया। जिस घर में शादी हो, उसका माहौल कैसा होता है... ये बताने की जरुरत नहीं। मगर अक्सर ही देखा है.. ऐसे माहौल में लड़की के पास कुछ खास काम नहीं होता। ऐसा ही कुछ यहां भी था। उम्र में मुझसे तकरीबन 3 साल छोटी बहन एक कमरे में चुपचाप पड़ी थी। सभी लोग अपने अपने काम में मशगूल.. हों भी क्यों ना... शाम में बारात जो आनी थी। ऐसे में जिसकी शादी थी... सबसे ज्यादा फुर्सत में वही था। बहन से मुलाकात सालों बाद हो रही थी। बीच में शिकायतों का कार्यक्रम चलता रहा। भैया.. आप तो भूल ही गए हैं.. आप कभी फोन भी नहीं करते... कभी हैदराबाद आइए ना। आखिरकार हैदराबाद मैं पहुंच ही गया था..। वो भी तब जब अगली ही सुबह बहन की विदाई होनी थी। लिहाजा मैंने सोचा उससे बात की जाए। अब तो ना जाने कब मुलाकात होगी। मैंने शुरुआत की। एक बार बात निकली तो मिनटों में बहुत दूर तक गई। हम बमुश्किल कुछ ही लम्हों में सालों का सफर तय कर गए। जवानी की उम्र से किशोरावस्था..और आखिर में बचपन..। यही वो वक्त था, जब हमारी मुलाकातें ज्यादा होती थीं। हम सभी भाई बहन गर्मियों की छुट्टी में गांव में जमा होते थे। फिर जो उधम चौकड़ी होती.. मजा आ जाता। बहन के साथ बातचीत करते हुए हम दोनों ही बचपन में पहुंच गए थे। तभी अचानक उसे शरारत सूझी और उसने कहा मेरे पास आपका एक फोटो पड़ा है जो मैं भाभी (होने वाली) को दिखाऊंगी.. और जब आपके बच्चे होंगे तब उन्हें। इतना कहकर वो जोर जोर से हंसने लगी। मैंने पूछा, भला ऐसा क्या खास है इसमें। वो कुछ भी नहीं कहती...बस जोर जोर से ठहाके लगाती। कुछ देर बाद इस बातचीत में बुआ भी शामिल हो गईं... वो भी फोटो की बात पर हंसने लगीं। देखते ही देखते छोटा भाई (बुआ का लड़का) भी बिना कुछ कहे...ठहाके लगा रहा था। लेकिन कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था... फोटो में ऐसा क्या था। बहुत मशक्कत के बाद जब फोटो सामने आई... मैं बुरी तरह झेंप गया। इसलिए भी कि.. ये फोटो शादी में जमा हुए दूसरे लोग भी उत्सुकतावश देख रहे थे। उसमें कुछ लड़कियां भी थीं। जो हमउम्र थीं। मेरी हालत ऐसी हो गई.. जैसे काटो तो खून नहीं। दरअसल ये फोटो जब खिंची गई थी..मेरी उम्र कुछ 3 या 4 साल रही होगी। इस फोटो में मैं बिल्कुल नंगा था..। यही नहीं मेरे चेहरे पर गजब की मुस्कान थी। ये फोटो मेरी होकर भी मेरी नहीं थी, फिर भी न जाने क्यों मुझे बहुत शर्म आ रही थी। निश्चित तौर पर मुझे उस वक्त समझ नहीं थी... नंगा होना शर्म की बात है। जबसे होश संभाला.. बिना तौलिया लपेटे मैं कभी नहीं नहाया। कपड़े बदलते हुए भी हमेशा ध्यान रखा.. कोई देख तो नहीं रहा है। खैर, ये तस्वीर मेरी एक बुआ ने ही खिंची थी। बेशक उस वक्त मैं झेंप जरुर रहा था.. मगर बचपन की इस तस्वीर ने मेरे भीतर एक अजीब सा उल्लास भर दिया.. और मैं अचानक ही बेहद खुश हो गया। काफी देर तक मैं उस तस्वीर को देखता रहा...। मैं सोचता रहा.. क्या मैंने उस वक्त फोटो खींचने का विरोध किया होगा। क्या मुझे ये मालूम भी होगा उस वक्त.. कि नंगा होना अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है। खैर जो भी, तस्वीर के बहाने मैं अपने बचपन में गोते लगाता रहा। ये सोचकर भी अजीब से अहसास हिलोरें मार रहे थे.. अगर ये फोटो मेरी बीवी (होने वाली) या मेरे बच्चों के हाथ लगेगी... तो उन्हें कैसा लगेगा। पर मुझे लगता है... ये वो खूबसूरत हादसा है जो हममें से ज्यादातर लोगों के साथ हुआ होगा...। सचमुच बचपन का कोई जवाब नहीं..। चलते चलते आपको ये जरुर बताना चाहूंगा... ऊपर लगी तस्वीर मेरी नहीं, इंटरनेट पर अपनी ऐसी तस्वीर डालने की हिम्मत, इस उम्र में तो मैं नहीं जुटा सकता।

Thursday, September 11, 2008

ब्राह्मण परिवार का बेमिसाल इस्लाम कनेक्शन !


उसकी उम्र कुछ 65 के आस पास होगी। मुश्किल से 4 फीट की कद काठी। झुर्रियों से भरा चेहरा.. और आंखें ऐसी मानो हर सबको शक के निगाह से देखती हो। 50 साल पहले वो आई थी.. इस घर में। उसका मजहब इस्लाम है। वो पक्की मुसलमान है। मगर उसे देवी गीत से लेकर तमाम भजन जुबानी याद हैं। उसे हिंदू रीति रिवाज से होने वाले शादी विवाह के गीत भी याद हैं। चार दशक पहले उसके शौहर पर आकाशीय बिजली गिरी...और उसकी मौत हो गई। उसके चार या पांच बच्चे थे। दो बेटे और तीन बेटियां। घर परिवार में मदद करने वाला कोई नहीं था। उसका शौहर सब्जियां बेचता था। लिहाजा उसके नहीं रहने पर उसने भी यही काम शुरु किया। मगर दिक्कत ये थी... उसे जोड़ना घटाना नहीं आता था। लोग उसे भुलवाकर ज्यादा सामान ले लेते थे, और पैसे कम देते थे। वो अक्सर पास के ही गांव में सब्जी बेचने जाया करती थी। जो ब्राह्मणों का गांव था। इनमें एक घर ऐसा था..। जहां उससे लोग सबसे ज्यादा प्यार से पेश आते थे। उसे खाना भी यहां मिल जाता था। वो किसी भी बरामदे में चुपचाप सो जाती... और नींद टूटने पर चाय, पानी से लेकर खाने पीने की फरमाइश हक से करती। मानो वो इस घर की मेहमान हो। और ये घर मेरा अपना था। मेरी मां (दादी).. उसके हालात से बहुत परेशान होती.. और जब गांव में लोग उसे ठग लेते तो मां को बहुत तकलीफ होती। लिहाजा मां ने उसे बेचने खरीदने से जुड़ी तालीम देनी शुरु की। धीरे धीरे वो जोड़ना घटाना भी सीख गई। और एक वक्त ऐसा भी आया जब वो दूसरों को ही चकमा देने में उस्ताद हो गई। खैर...। मेरे बाबूजी की कुल जमा उम्र 10-12 साल रही होगी.. जबसे ये मुसलमान बेवा हमारे घर का हिस्सा बनी हुई । वो इस घर में होने वाली तमाम शुभ अशुभ घटनाओं का हिस्सा बनी है। उसने शादी-विवाह से लेकर मय्यत तक देखी है। मेरी जेनरेशन के बच्चों को तो बड़े होने पर ही पता चल पाया कि वो हमारी कोई रिश्तेदार नहीं है।नहीं तो सभी कूजड़िन आजी करते रहे। बेशक बच्चे अक्लमंद हो गए.. मगर उन्हें भी उससे बहुत लगाव है। घर में कुछ भी खाने पीने को बने तो.. हर किसी को ध्यान रहता कि कूजड़िन आजी को मिला या नहीं। अब उसके बच्चों के भी बच्चे हो चुके हैं। मगर उसकी बहुओं ने उसे घर से निकाल दिया है। 65 70 की उम्र में भी वो अपना पेट खुद भरती है। ये अलग बात है... उसे इसकी चिंता नहीं करनी पड़ती.. जब भी उसके पास किल्लत होती है। वो हमारे यहां डेरा डाल देती है। हालांकि पहले के मुकाबले उसका आना जाना कम ही हो पाता है। मगर वो नहीं होकर भी घऱ में होती है। छोटे से लेकर बड़े तक हर कोई उसके बारे में खोज खबर लेता रहता है। उसका जिक्र हमेशा होता रहता है। बहुत दिन हो जाने पर घर के लोगों को ये भी डर सताने लगता है कहीं वो इस दुनिया से चली तो नहीं गई। लोग परेशान होते हैं.. इसी बीच वो कहीं न कहीं से टपक पड़ती है। वो सही मायने में इस घर का हिस्सा है..। बुआ वगैरह फोन पर भी उसकी खोज खबर लेती रहती हैं। जब वो ससुराल से यहां आती हैं तो बाकी लोगों की तरह ही कुजड़िन के लिए भी कुछ ना कुछ तोहफा होता है उनके पास। बहुत अजीब है ये कहानी.. एक हार्ड कोर ब्राह्मण परिवार में एक मुसलमान महिला दशकों से ऐसे रह रही है.. जैसे वो इसी परिवार की हो। ऊपर लगी तस्वीर, कूजड़िन आजी की है। पिछली बार गांव गया था तो मैंने खींच ली थी। ब्राह्मण परिवार का ये एक ऐसा इस्लाम कनेक्शन है...जो निजी तौर पर मुझे बहुत सकून देता है।

Wednesday, September 10, 2008

9 साल के बच्चे की लव स्टोरी !

प्यार, हर किसी के लिए एक अलग अहसास है। इसकी परिभाषाएं जुदा जुदा हो सकती हैं। रिश्ते नाते संबंध और समाज की बुनावट... भला प्यार का इनसे क्या वास्ता। ये लव स्टोरी है, एक बच्चे की... जिसकी कुल जमा उम्र 9 साल थी। चौथे दर्जे में पढ़ने वाले इस बच्चे की जिंदगी में पहली बार टीवी दाखिल हुआ था। यूं तो वो पहले भी रामायण और महाभारत जैसे सीरियल्स दूसरों के घर जाकर देखा करता था। मगर ऐसा पहली बार हुआ था कि टीवी खुद उसके घर में हो। दरअसल पढ़ाई करने के लिए उसे अपनी बुआ के यहां भेज दिया गया था। जहां उसके लिए टीवी ही सबसे बड़ी उपलब्धि थी। लिहाजा अब वो सीरियल्स के साथ साथ फिल्में भी देखने लगा। ज्यादातर फिल्मों में एक लड़का और एक लड़की के बीच प्यार जैसे किस्से दिखते थे। दूसरे बच्चे इस उम्र में क्या सोचते थे.. कौन सी बातें उनके जेहन में घूमती थीं.. इसकी भनक उसे नहीं थी। मगर उसके दिलोदिमाग पर फिल्मों का असर बहुत ज्यादा पड़ा। एक अनजानी लड़की इसी उम्र में सपनों की रानी बन गई थी, जिससे वो बिल्कुल फिल्मी अंदाज में प्यार करना चाहता था। बात थोड़ी अजीब है.. मगर ये सौ फीसदी सच है। अब उसे लड़कियां फिल्मों की किरदार जैसी नजर आती थीं..। लिहाजा वो उनसे घुलमिल भी नहीं पाता था। मगर हर उस लड़की के बारे में कल्पनाएं बुनता था.. जो कभी कभार उससे प्यार से पेश आ जाती थी। शायद वो अपने उम्र के लड़कों से बड़ा हो चुका था। इसी उम्र में उसमें तमाम वो अहसास पैदा हो चुके थे... जो आम तौर पर जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए किशोरों के दिलों में जगते हैं। बुआ के यहां रहने के लिए उसे अपनी मां से दूर जाना पड़ा था..। सो कहीं न कहीं ये कमी भी.. उसे ऐसे सपनों में डूबने उतराने के लिए जिम्मेदार रही। कोई लड़की उसे कुछ खाने को देती..कोई लड़की उससे कॉपी मांग लेती... या फिर कोई लड़की उससे कुछ देर बात भी कर लेती तो उस दिन के बाद वो उसकी जूलिएट बन जाती। दिन रात खयालों में बस उसी का चेहरा। यहां तक कि फिल्में देखते वक्त.. हिरोइन की जगह उसका ही चेहरा दिखता। उस बच्चे के स्कूल में उसकी बुआ की रिश्ते की ननद भी पढ़ती थी.. वो भी उसी की क्लास में। जाहिर है, उसकी उम्र भी कुछ वही रही होगी। घर आस पास थे। लिहाजा उसकी पहली महिला मित्र वही लड़की बनी। स्कूल में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा था... एक दूसरे के घर भी आने जाने लगे। खेलकूद से लेकर मारपीट तक हर जगह वो साथ थे। 9 साल के उस बच्चे की कोरी कल्पनाओं में रंग सा भर गया था.. उसकी कल्पनाओं की प्रेमिका उसे मिल गई थी। फिल्म ठीक ठाक चल रही थी, तभी एक दिन विलेन की एंट्री हुई। दरअसल उसके फूफाजी का ट्रांसफर हो गया। और अब उन्हें कहीं और जाना था। उसके अलावा उस परिवार के बाकी सारे लोग खुश थे। नए और अपेक्षाकृत बड़े शहर में रहने की हसरतें हिलोरें मार रही थीं...। मगर वो बच्चा बेहद उदास हो गया। उसे बाकी कोई चिंता नहीं थी... परेशानी थी तो बस ये वो अपनी प्यारी दोस्त से दूर हो जाएगा। वो छिप छिपकर रोता था। गुमशुम रहता था, मगर किसी से कहे तो क्या कहे। शायद वो अपनी उम्र से कोसों दूर निकल चुका था। उसके अहसास इसी उम्र में जवान हो चुके थे। आखिरकार एक दिन सारा सामान बांधकर.. । उस शहर से जाना पड़ा। और हमेशा के लिए उसका पहला प्यार अधूरा रह गया। ऐसा नहीं वो उस लड़की से दोबारा नहीं मिला... मिला मगर सालों बाद जब वो बड़ा हो चुका था। और अबकी बार वो तमाम अहसास कहीं नहीं थे। क्योंकि बड़े होने के साथ साथ वो दुनिया की तमाम हकीकतों से वाकिफ हो चुका था। दरअसल, ये लव स्टोरी 9 साल के लड़के की थी। जो जानता तक नहीं था.. कि रिश्ते की बुआ के साथ भी ऐसे सपने बुने नहीं जा सकते..। यूं तो ये मेरी अपनी ही कहानी है। मगर अब महसूस नहीं होता..क्या वो मैं ही था,या कोई और...?

Tuesday, September 9, 2008

जब 3 रुपए में बेची अपनी ईमानदारी !

साल 2003 की बात है। उस वक्त दिल्ली में बस का न्यूनतम किराया 3 रुपए की बजाए 2 रुपए हुआ करता था। आईआईएमसी में 9 महीने का हनीमून खत्म हो चुका था। जिंदगी की क्रूरतम सच्चाईयों से रुबरु होने का वक्त चुका था। एक-एक रुपए की कीमत समझ में आने लगी थी। खर्चे बढ़ गए थे, मगर घर से मिलने वाला बेरोजगारी भत्ता जस का तस था। लिहाजा, जहां पैसे बचाए जा सकते थे, बचा लेते थे। किसी की ईमानदारी की कीमत भला क्या हो सकती है। फिर भी लोग मानते हैं, बहुत मोटी रकम मिले तो बेईमानी को जस्टिफाई किया जा सकता है। मगर मैंने तो महज 3 रुपए के लिए कितनी ही बार अपनी ईमानदारी बेची है। जी हां, पचासों बार मैंने 5 रुपए के बदले 2 रुपए और 10 के बदले 7 रुपए का टिकट लेकर बस में सफर किया है। ताकि 3 रुपए बच सकें... क्योंकि उस वक्त इन 3 रुपयों की कीमत बहुत ज्यादा थी...शायद आज के 500 रुपयों से भी ज्यादा। क्योंकि आमदनी का कोई दूसरा जरिया नहीं था, घर से जो पैसे मिलते थे.. उससे बस दिल्ली में जिंदा भर रहा जा सकता था। लेकिन 3 रुपए की बेईमानी भी आसान नहीं थी। इसके लिए बस स्टैंड पर जहां बाकी के लोग डीटीसी बसों का इंतजार कर रहे होते थे, मैं प्राइवेट बस की ताक में रहता। खाली से खाली डीटीसी बस आंखों के सामने से गुजर जाती मगर मैं खड़ा रहता... क्योंकि मेरे जेहन में 3 रुपए बचाने की मजबूरी घुमड़ती रहती थी। यकीन मानिए.. 3रुपए बचाने के लिए इतना ज्यादा खून जलाना पड़ता था, जो 500 रुपए के मेवे खाकर भी नहीं बनता। मसलन, बस में चढ़ने के बाद सबसे पहले कंडक्टर से टिकट लेने तक मन में इतने बवंडर उठ रहे होते.. जिनका कोई हिसाब नहीं है। खुद को उस झूठ के लिए तैयार करना पड़ता... जो बेहद मामूली होती थी। टिकट लेने के दो तरीके होते हैं। पहला ये कि आप जगह का नाम बता दें दूसरा ये कि आप सीधे बोल दें 2 रुपए का अगर कंडक्टर सीधे तौर पर टिकट देदे तो ठीक पर कहीं वो पलटकर पूछ दे..।कहां जाना है.. तो समझिए... मन के भीतर भूचाल जाता था। कई बार तो झूठ बोलते हुए होंठ तक कांप जाते थे। मगर क्या करते, 3 रुपए बहुत होते थे उस जमाने में। टिकट लेने के बाद भी तब तक चैन नहीं होता, जब तक कि अपनी मंजिल तक ना पहुंच जाएं। लगता रहता कि कहीं कंडक्टर आकर पूछ ना दे भई तूने तो 2 का लिया था.. कहां तक जाएगा। लिहाजा, टिकट लेकर कोने में दुबके रहते कहीं कंडक्टर का ध्यान ना चला जाए। यही नहीं, साथ सफर कर रहे लोगों से भी कई दफा नजर टकरा जाती तो लगता मानो वो पूछ रहा हो...अबे बेईमान 2 रुपए में कहां तक जाएगा... मगर क्या करते, पैसों की किल्लत....बेरोजगारी की अनिश्चितता भरी जिंदगी... और बेतहाशा बढ़ती महंगाई के बीच...3 रुपए अपनी औकात से कई गुना ज्यादा होते थे। जिस ईमानदारी को कोई करोड़ों में नहीं खरीद सकता... उसे खुद मैंने महज 3 रुपए में कितनी ही बार बेचा है.. अब सोचता हूं तो लगता है.. 3 रुपए भी कम नहीं होते....