Sunday, October 5, 2008

क्या मिलेगा तुम्हें मुसलमानों को धोखे में रखकर !

( बाटला हाउस...जामिया नगर....एनकाउंटर....और अरेस्ट्स को लेकर ब्लॉग वर्ल्ड में अभी भी तहलका मचा हुआ है। अलग-अलग लोग अपनी बात रख रहे हैं। मेरा ये लेख थोड़ा लंबा जरुर हो गया है। मगर जो कुछ मैंने लिखा है..उसका सरोकार आम आदमी की जिंदगी से है....जो अपनी मर्जी से हिंदू या मुसलमान नहीं बना...और आज भी वो सिर्फ इंसान है...लेख एक तरह से सवालों का पुलिंदा है...उस शख्स का जिसे डर लगता है कि कहीं लोग उसे मुस्लिम विरोधी तो नहीं मानते...क्योंकि वो बुद्धिजीवियों की तरह दोमुंहा नहीं है, जो सब कुछ नाप तौलकर करते हैं। - विवेक सत्य मित्रम् )


विशुद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ। जाहिर तौर पर संस्कार भी वैसे ही मिले। जब भी कोई मुसलमान चौखट पर जाता तो चाय देते वक्त घर में शीशे का गिलास निकाला जाता। जिसमें मैंने कभी घर के किसी सदस्य को कभी चाय पीते नहीं देखा। लेकिन मन में कभी कोई सवाल खड़ा नहीहुआ। ऐसा लगा कि एक नियम है। लिहाजा सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। मेरे घर में मेरे बाबूजी की पैदाइश से पहले से ही एक बेवा रहती थी। उसका मजहब इस्लाम था। मगर वो घर के एक सदस्य के जैसी थी। इस बारे में पहले भी लिख चुका हूं। बाबूजी की पैदाइश साल 1954 की है। ये बताने की जरुरत नहीं, उस दौर में गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण परिवार में हालात कैसे रहे होंगे। समाज के तमाम विरोधों के बावजूद वो मुसलमान बेवा हमारे घर में रही...औऱ वो आज भी मौजूद है।


बाबूजी..ने जिंदगी में शायद ही कभी ईमानदारी और सच्चाई को ताक पर रखा हो...लेकिन अपने बेस्ट फ्रेंड के लिए एक दफा उन्होंने उसकी जगह पर परीक्षा दी.. इस खतरे के बावजूद कि पकड़े जाने पर बेइज्जती के साथ-साथ उनका करियर भी खत्म हो सकता था। लेकिन खाने पीने की दिक्कतों के दौर से गुजर रहे अपने मुसलमान दोस्त की परेशानियां उन्हें कहीं बड़ी लगीं। आज भी इस दुनिया में उनके इकलौते स्ट फ्रेंड वही जावेद चाचा हैं। बाबा बुआ लोगों की पढ़ाई को लेकर बहुत जागरुक थे। उन्हें खूब पढ़ाया लिखाया। मगर पर्देदारी के साथ। ये बताने की जरुरत नहीं उस दौर ें लड़कियों के मन पर परिवार और इसके संस्कारों का असर कितना होता था। मगर मेरी बुआ लोगों की ज्यादातर सहेलियां मुसलमान ही रहीं...जिनके निकाह वगैरह में भी वो शरीक हुईं....बावजूद कि वो एक कट्टर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। एक अर्से तक संघ की शाखाओं में शामिल होने वाले मेरे चाचा की मित्रमंडली में इम्तियाज...जो दर्जी का काम करते थे....एबीसीडी (नाम भूल रहा हूं)....जो इक्कागाड़ी चलाते थे...और भी कई दूसरे मुसलमान शामिल थे। जो घर में होने वाले हर तीज त्यौहार पर मौजूद रहते थे। और उन्हें घर के सदस्य जैसा सम्मान मिलता था...। उम्र के साथ हर कोई अपनी अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गया...लेकिन आज भी अगर इनमें से कोई कहीं टकरा जाए....तो हम बच्चे सगे चाचा जैसा सम्मान देते हैं।


मेरा घर यूपी के गाजीपुर जिले के जमानियां कस्बे के पास एक गांव में है। ब्राह्मण बहुल इस गांव में एक भी मुसलमान परिवार नहीं रहता। लेकिन घर के कपड़े लत्ते धोने वाली पड़ोस के गांव की धोबन मुसलमान है। सुहाग की चूड़ियां, बिंदी और फीता के लिए चाचियों को हमेशा चूड़िहारन का इंतजार रहता है। ये सोचकर कि अबकी बार कहीं चूड़िहारन को खाली हाथ ना लौटना पड़े। बाजार जाने पर भी महिलाएं अपना सामान नहीं ले आती हैं। चूड़िहारन भी मुसलमान है...और वो 10 किलोमीटर दूर हमारे गांव में चूड़ियां बेचने आती है...क्योंकि पूरे गांव की महिलाएँ...लड़कियां उसी की राह देखती रहती हैं। हमारा बाजार जमानियां है। बाबा के जिंदा रहने और उसके कुछ वक्त बाद तक...हमारे घर का सारा सामान जमानियां बाजार की माजिद मियां की दुकान से ही आता था...। रिश्ता गहरा था..ऐसे में नकद-उधारी में कोई दिक्कत नहीं होती थी...। बाबूजी ने जब कोचिंग क्लासेज खोला...तो उसमें सबसे ज्यादा तनख्वाह पर जिसे रखा..और जिस पर भरोसा किया वो थे बब्बू...यानि नफीस सिद्दीकी। बाद में जब स्कूल खोला तो अपने बाद स्कूल में जिस टीचर को सबसे ज्यादा तवज्चो दी...वो थे फख़रे आलम। ये कॉन्वेंट स्कूल अभी भी चल रहा है...। जमानियां में चल रहे स्कूलों में सबसे ज्यादा मोहम्मडन बच्चे हमारे स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल में पिछले 7 सालों से एक ही दाई है। जो मुसलमान है...। वो हमें भैया भैया करती रहती है...हम जब भी घर जाते है हाल चाल पूछने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। स्कूल में चलने वाली गाड़ियों में अक्सर बैटरी वगैरह की दिक्कतें आती रहती हैं। जमानियां कस्बे में यूं तो बैटरी का धंधा करने वाले कई हिंदू दुकानदार हैं। मगर चाचा हमेशा ....मियां के यहां जाते हैं।


घर में लोगों के बीमार पड़ने का सिलसिला लगा ही रहता है....ऐसे में अस्पताल जाने पर उसकी गेट पर मेडिकल स्टोर चला रहे जमाल चाचा ही डॉक्टर के पास ले जाते हैं। जाहिर है...दवाईयां उनके ही दुकान से ली जाती हैं....पैसा हो तो भी...ना हो तो भी। जबकि उनकी दुकान के अगल बगल कितने ही हिंदुओं की दुकानें हैं। यही नहीं बाजार में सैलून चलाने वालों की कोई कमी नहीं... लेकिन जब भी बाबूजी को दाढ़ी बनवानी होती है या फिर बाल कटवाने होते हैं...वो वकील नाई के यहां ही जाते हैं...जो कायदे से अभी तक एक गुमटी भी नहीं ले सके। बचपन में हमारे लिए वो मजबूरी जैसे थे। बाकी कहीं से भी बाल कटवाने की आजादी नहीं थे...हम चिढ़ते थे...लेकिन बाबूजी कहते थे...बिचारा गरीब है.. उसे दो पैसा मिल जाए तो क्या हर्ज है। बाबूजी बड़े साहित्यकार हैं....कवि हैं...ये अलग बात है छोटी जगह पर रहते हैं...। लिहाजा उनके शिष्यों की भी कोई कमी नहीं है..। आजकल बाबूजी का एक नया शिष्य बना है। उसकी उम्र मुझसे एक दो साल कम होगी। कविताएं लिखने का उसे शौक है...। लिहाजा उसने बाबूजी को अपना गुरु बना लिया है। उसका नाम है तौसीफ। लेकिन उसने अपने नाम के आगे सत्यमित्रम् जोड़ लिया है। मेरा नाम विवेक सत्यमित्रम् है। मुझे इस बात का गर्व था कि मेरा नाम दुनिया भर में वन पीस है। लिहाजा जब तौसीफ ने अपने नाम के साथ सत्यमित्रम् जोड़ा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन ये नाम रखने वाले बाबूजी ने बेहद आराम से कह दिया... अरे भाई क्या हर्ज है...इसमें।


ये तो वो लोग हैं..जिनका ध्यान मुझे हो आया। न जाने कितने ही लोग छूट गए होंगे...जो मुसलमान होकर भी हमारी जिंदगी में इस कदर शामिल रहे...हैं...और रहेंगे कि हम चाहें तो भी उन्हें अलग नहीं कर पाएंगे। और कहीं से भी ये सब कुछ प्रायोजित नहीं है...बेहद सहज है। बावजूद इसके अगर मैं जामियानगर में हुई मुठभेड़ को गलत साबित करने के तर्क नहीं गढ़ता...अगर मैं ये नहीं मान लेता कि भारत में होने वाले दंगे हमेशा हिंदुओं की वजह से होते हैं...अगर मैं बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड पर घड़ियाली आंसू नहीं बहाता तो सेकुलरिज्म के तथाकथित ठेकेदार मुझे सांप्रदायिक बताने में कुछ सेकेंड भी नहीं लगाएंगे। और आपको बता दूं.. ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। लाखों लोगों की जिंदगियां ऐसी ही हैं। मगर जब भी बात होती है आतंकवाद की...धमाकों की...दहशत की...और उसमें नाम आता है किसी मुसलमान का...तो मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग जो इस कौम के पक्ष में दलीलें गढ़कर..बेवजह चीख पुकार मचाकर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कभी नहीं करते...उन्हें एक झटके में हिंदूवादी करार दे दिया जाता है, जिन्हें मुसलमान फूटी आंख नहीं सुहाते। जबकि आतंकवाद या दहशतगर्दी पर एक आम आदमी की सहज प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होगी। उसे सरकार, पुलिस, प्रशासन पर भरोसा करना ही होगा...जब तक कि असलियत कोई और जाहिर न कर दे। लेकिन वो जो आम नहीं हैं....जो कुछ खास हैं...या साफ शब्दों में कहें तो बुद्धिजीवी हैं....उन्हें तो हर बात में हिंदुओं को कोसने....बेजा मामलों में भी मुसलमानों का पक्ष लेने में अजीब सा सुख मिलता है।


दरअसल ये वो लोग हैं जो अपनी सेकुलर छवि को बरकरार के रखने के लिए समाज को हिंदू और मुसलमान में बांटकर रखना चाहते हैं। वरना.... अगर एक हिंदू नन का रेप कर दे...तो इन्हें तत्काल यकीन हो जाता है...लेकिन एक मुसलमान धमाके कर दे...तो इनके दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है....इन्हें लगता है कि उसे बेवजह फंसाया जा रहा है। मैं भी मानता हूं...बहुत से मामले फर्जी हो सकते हैं...पर हर बार तो ऐसा नहीं होता...। लेकिन सेकुलर दिखने के फैशन के कद्रदान बुद्धिजीवियों को हर बार यही लगता है।



क्या हम सच और झूठ... सही और गलत की बुनियाद पर चीजें तय नहीं कर सकते...। बेवजह एक बड़ी आबादी, जो खुद अल्पसंख्यक होने की असुरक्षा के साथ जी रही है, उसे और डराकर सेकुलरिज्म के ये ठेकेदार आखिर क्या हासिल कर लेंगे...। हिंदू या मुसलमान को नहीं, समाज के बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करने की जरुरत है...जो पाखंडी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं...उनके वाद का ब्रांड चाहे जो हो। यकीन मानिए....मुसलमानों पर अत्याचार की मनगढंत कहानियों का मेरे घर पर और यहां की सामाजिक बुनावट पर कोई असर नहीं पड़ता....लेकिन तब क्या होगा...जब बुद्धिजीवियों के जहरीले विचारों का जहर एक दिन मेरे गांव...मेरे कस्बे....मेरे घर तक पहुंच जाएगा। बस करो बुद्धिजीवियों,...सच की बात करो...झूठ की बात करो..सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...। क्योंकि मैं अपने आने वाली पीढ़ी को अपने परिवार की यही मजहबी बुनावट सौंपना चाहता हूं....जिसे तुम लोग बर्बाद करने पर तुले हो।

13 comments:

Udan Tashtari said...

सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...। क्योंकि मैं अपने आने वाली पीढ़ी को अपने परिवार की यही मजहबी बुनावट सौंपना चाहता हूं....जिसे तुम लोग बर्बाद करने पर तुले हो।


-बिल्कुल सही.

ab inconvenienti said...

सही और खरी बात

Dr Parveen Chopra said...

आप का लेख पढ़ कर मेरी आंखें नम हो गईं.....और कुछ कहने का बचा ही नहीं है।
PS...आप के लेखन की क्वालिटी देख कर पता चला कि IIMC है क्या !!एक दम दिल से लिखी पोस्ट.
मैं आज पहली बार ही आप की ब्लाग पर आ पाया।
http://drparveenchopra.blogspot.com

दिनेशराय द्विवेदी said...

यही भारतीय संस्कृति है। इसी को मैं ने जिया है और जियेंगे। बचेगी भी यही।

Anonymous said...

एकदम बेबाक कही.

Unknown said...

आपकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. ऐसे ही खयालात कुछ मेरे भी हैं. मेरी कुछ टिप्पणियाँ पढ़ कर एक मुस्लिम ब्लाग्कारा ने कहा था - कुछ लोगों का काम ही पानी पीकर मुसलमानों को कोसना है.

LindaJ said...

You just rubbish, you can,t make fool from your words. People like you are mindless and they don,t want India should progress. This country can,t survive without muslims. They are strong pillers of great Indian society and you are arguing mindlessly. This man Udan Tashtari rightly commented here.

सुमीत के झा (Sumit K Jha) said...

विवेक जी यही बात मेरे को समझ में नहीं आती की, आतंकवादी को एक आतंकवादी के नज़र से क्यों नहीं देखा जाता. क्यों यह सेकुलरिज्म के तथाकथित ठेकेदार उसे मुसलमान मानते है?? क्यों बाटला हाउस में हुए एनकाउंटर में मरने वाले इने मुसलमान नज़र आते हैं?? इस्लाम रमजान के पाक महीने में तो दाढ़ी बनाने का भी अधिकार नहीं देता, क्योकि कट कर खून निकल सकता है. और इन लोगो ने तो दिल्ली की सड़के को खून से रंग दिया. क्या आप इने मुसलमान मानोगे?? मैं तो नहीं मानता. और जहा तक आपके पोस्ट का बात है, मैं भी विशुद्ध ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ हु. जाहिर है संस्कार भी आप जैसे ही है. लेकिन यह कहानी अपना लगता है. जैसे लग रहा हो.......बचपन की यादे ताजा हो गयी.
मैं mass communication ka student hu...... और एक ब्लॉग लिखता हु. अक्सर मुझे मेरे जानने वाले, मीडिया में काम कर रहे मेरे कॉलेज के दोस्त मुझे कहते है.......लिखने का तरीका सुधारो......क्योकि मीडिया सेकुलरिज्म के ये ठेकेदारओ के बलबूते चलती है, कोई काम नहीं देगा..............लेकिन क्या करे लिखने से बाज नहीं आता.

एक नज़र मेरे ब्लॉग पे:
www.khabarnamaa.co.cc

Unknown said...

bahuut sahee kaha aapne

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब लिखा है आप ने ,सभी बराबर है, सब इंसान हैना कोई मुसल मान ना कोई हिन्दु, अब हम सब को पता ही चल गया है इन की चालो का तो हम क्यो लडे अब हमे सोचना चाहिये आने वाली पीढी के बारे , कम सा कम वो तो सुखी रह सके, इस नफ़रत की दुनिया से दुर तो रहए,
धन्यवाद, एक सुन्दर विचार के लिये

रंजन राजन said...

क्या बात है...सच की बात करो...झूठ की बात करो..सही की बात करो....गलत की बात करो...मगर प्लीज हिंदू-मुसलमान की बात मत करो...।
बोले जी बोलो, हम हैं सुनने के लिए। मन में जितनी भी पीड़ा हो ब्लाग पर उगलते रहो।

मुनीश ( munish ) said...

Whatever u say is ur TRUTH, when it comes to a country and society it is just a barrage of impractical emotions. That golden era of Ganga-Jamni tahzeeb is over and out. Today , they relate themselves to happenings in Gaza strip ,West bank and Golan heights . Their's is an international pattern of thought unlike u my dear 'cos ur a victim of a ridiculous nostalgia . Facts are very frightening and need a practical approach.

Anonymous said...

shaandar!!!!khoobsurat vishleshan!