Thursday, April 9, 2009

बिल्कुल सही निशाने पर लगा जरनैल का जूता !

आखिरकार जरनैल सिंह का जूता भारी पड़ा। टाइटलर और सज्जन कुमार का टिकट कट गया। सिख समुदाय की भावनाओं में एक जूता इस कदर उफान ले आया, जिससे खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली कांग्रेस भी दहल गई। नतीजा सामने है। जाहिर तौर पर अब मसला जरनैल सिंह का जूता नहीं है, मसला है एक-एक सीट की मारामारी के बीच ‘वोटतंत्र’ से पंगा लेने का, जो लोकतंत्र तो कतई नहीं है।
जी हां, ये वोटतंत्र है। भीड़तंत्र का संवैधानिक ढ़ांचा। जिसमें जरनैल सिंह जैसा एक पत्रकार वक्त की नजाकत बखूबी समझता है। उसे मालूम है, वोटतंत्र की व्यवस्था में वो गुनहगार बाद में होगा.....पहले तो वो एक वोट है...वो भी बेशकीमती वोट क्योंकि वो दिल्ली में रहता है, जो एकमात्र ऐसा इलाका है... जहां देश की सबसे बड़ी... पुरानी और गैर सांप्रदायिक पार्टी ‘गिल्टी कॉन्शस’ के भंवर में डूबती उतराती नजर आती है। ये बताने की जरुरत नहीं कि कांग्रेस सिख वोटरों की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहती, लिहाजा उसने अपने सिपहसालारों (टाइटलर और सज्जन कुमार) को ठिकाने लगाना ज्यादा बेहतर समझा।
मगर इन सबके बीच...बड़ा सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है। चुनाव के माहौल में तमाम मजबूरियों और आशंकाओं तले दबी पार्टी बेशक जरनैल सिंह को माफ कर दे। लेकिन क्या सचमुच वो माफी के लायक है ? जरनैल सिंह जो देश के गृहमंत्री पर जूता उछालकर रातोंरात 84 के दंगा पीड़ितों के लिए हीरो बन जाता है। क्या सचमुच उसने जो कुछ किया वो माफी के लायक है?
यहां सवाल 84 के दंगों की जांच में सरकार की संदिग्ध भूमिका का नहीं है..यहां सवाल उस जमात का भी नहीं है...जिसकी तकलीफें आज तक जस की तस हैं...यहां सवाल उन मांओं... उन पिताओं और उन बहनों का भी नहीं है...जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े खोए। यहां सवाल उस सिख समुदाय का भी नहीं है जो अपने साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ बराबर आवाज बुलंद करता रहा है...और आज भी कर रहा है। यहां अहम सवाल है...लोकतंत्र की आड़ में अपनी जड़ें जमा रहे भीड़तंत्र का...। जो आज देश की कानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है।
ये बताने की जरुरत नहीं कि अगर पी चिदंबरम पर जूता उछालने वाला पत्रकार सिख की बजाए किसी और मजहब से होता तो शायद कांग्रेस और इस मुल्क का कानून उसे कभी माफ नहीं कर पाता। लेकिन अहम सवाल ये है..आखिर इस सरकार को किसने ये हक दिया कि वो देश की कानून व्यवस्था का माखौल उड़ाने वालों को महज इस बिना पर बख्श दे कि वो उसके राज काज के आड़े आ सकता है। जरनैल सिंह ने क्या सोचकर ऐसा किया...ये तो वही बेहतर जानता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उसका वो जूता ‘पी चिदंबरम’ नहीं देश के ‘लोकतंत्र’ को निशाना बना गया... जहां वोटतंत्र के तौर पर अभयदान पा रहा भीड़तंत्र मुल्क की संवैधानिक अस्मिता का सरेआम चीरहरण कर रहा है... मगर कानून खामोश है...क्योंकि वो उन चंद लोमड़ीछाप नेताओं की हाथ का खिलौना बन गया है.....जिन्हें मुल्क से पहले अपनी कुर्सी याद आती है...। ऐसा लगा जरुर कि जरनैल के जूते का निशाना चूक गया...लेकिन ऐसा नहीं है...उसके निशाने पर मौकापरस्ती की राजनीति का वो चेहरा था...जो कुर्सी के लिए जूते खाने को भी तैयार रहता है... और आखिरकार वही हुआ।

6 comments:

manisha bhalla said...

महोदय आप न तो किसी दंगा पीड़ित को जानते हैं..न आपने उन्हें देखा। देखना चाहते हैं तो चंडीगढ़ की उन कॉलोनियों में जाओ जहां दंगा पीड़ित रहते हैं। उनके हालात देखो जाकर..बूढ़ों की दवा-दारू करने वाला कोई नहीं है। नौजवानों के लिए नौकरियां नहीं, रहने को मकान नहीं..बच्चे पढ़े नहीं। आज भी वहां के लोग उन्हें आतंकवादी मानते हैं। समाज के कटकर जीवनयापन कर रहे हैं। यह पत्रकार या सिख का गुस्सा नहीं..जनता का गुस्सा था..उसमें उफान आया..सही ही तो है वैसे नहीं तो ऐसे सही....लोकतंत्र में हमें इजाजत है अपना गुस्सा जाहिर करने का। क्या नेताओं को जूते नहीं पड़ने चाहिए..एक नहीं सौ बार पड़ने चाहिए। किसकी कलम से तख्तापलट हुआ है..टीवी पर नेताओं के क्या-क्या कारनामे नहीं दिखाए जाते पर क्या होता है....बताएं...तो जूता ही सही है। बाबू चुनाव न होते तो सरकार जरनैल सिंह को कभी माफ नहीं करती। अगर सरकार जरनैल को हाथ भी लगाएगी तो पंजाब से कांग्रेस साफ हो जाएगी। आज भी दंगा पीड़ित कांग्रेस का नाम नहीं सुनना चाहते। मेरी जरनैल सिंह से कोई हमदर्दी नहीं, इतना कहना है कि जब जनता का गुस्सा सिर चढ़ कर बोलता है तो ऐसा ही होता है।

श्यामल सुमन said...

जूता की महिमा बढ़ी जूता का गुणगान।
चूक निशाने की भले चर्चित हैं श्रीमान।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

परमजीत सिहँ बाली said...

इस पीड़ा को सिर्फ भुक्त भोगी ही महसूस कर सकते हैं।आप जैसे लोग नहीं।

Vishal Mishra said...

bhai..patrakarita ki khas baat ye hai ki chahe wo kisi madhyam me ho print, tv, radio, ya web ki usme ek khabar ya article ek vishay par ek target par aadharit hona chahiye.. apne kahna sahi chaha par kai baatein kah gaye... shayad log apke article ka matlab aur apki vichaardhara nahi samajh paye.. kripya ek muddde aur ho sake to pahle uske ek pahlu ke bare me jaankari de... apke vichaar achche hain bas lekh ko tukdon me padhne ki zarurat hai.

Vishal Mishra said...

bhai..patrakarita ki khas baat ye hai ki chahe wo kisi madhyam me ho print, tv, radio, ya web ki usme ek khabar ya article ek vishay par ek target par aadharit hona chahiye.. apne kahna sahi chaha par kai baatein kah gaye... shayad log apke article ka matlab aur apki vichaardhara nahi samajh paye.. kripya ek muddde aur ho sake to pahle uske ek pahlu ke bare me jaankari de... apke vichaar achche hain bas lekh ko tukdon me padhne ki zarurat hai.

विवेक सत्य मित्रम् said...

विशाल जी, आपने ठीक कहा। निश्चित तौर पर मुझे इस बात का ध्यान रखना चाहिए...