Thursday, September 25, 2008
पुण्य प्रसून वाजपेयी जी…कम से कम आप से ये उम्मीद नहीं थी !
Tuesday, September 23, 2008
क्या आप लगाएंगे अपने फोन में कंडोम वाला रिंगटोन ?
है। दरअसल ये एक खुली चुनौती है। सिर्फ आपको नहीं...आप जैसे किसी भी शख्स को। अगर मामला नहीं जानते, तो आपको बता दूं। हाल ही में एड्स के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए NACO ने एक कंडोम वाला रिंगटोन जारी किया है। अगर आप ये रिंगटोन अपने फोन में लगा लें...और कोई फोन आए तो आपके फोन में कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम बजने लगेगा..। लेकिन मैं जानता हूं, आपकी हिम्मत नहीं है, आप ये रिंगटोन लगा लें...जबकि ये रिंगटोन बिल्कुल मुफ्त है। जिस देश में हम और आप रह रहे हैं... वहां शायद आज से 50 साल बाद भी ऐसा रिंगटोन लगाने की हिम्मत जुटाना बड़ा काम होगा। कितना वक्त बीत गया। टीवी की ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया रंगीन हो गई। मगर शायद ही कोई मां बाप हों.. जो कंडोम और सैनिटरी नैपकिन का विज्ञापन आते वक्त चैनल ना बदल देते हों। आप खुद ही सोचकर देखिए.. क्या आपने कभी अपने बेटे, बेटी या भाई-बहन को ये बताने की कोशिश की है..आखिर ये निरोध क्या बला है। बचपन में ना जाने कितनी ही बार मेरे जेहन में ये सवाल उठा कि बारिश में छाता लगाकर लड़का-लड़की जा रहे होते हैं... और अचानक गाना बजने लगता है.. प्यार हुआ..इकरार हुआ.. प्यार से फिर क्यों डरता है दिल...इस बीच फूफाजी अक्सर मुझे पानी लाने के लिए भेज देते हैं। जब ऐसा बार बार होने लगा तो मैं इस एड से एक तरह की नफरत करने लगा। हालत ये हो गई थी, ज्यों ये गाना आता... मुझे समझ में आ जाता कि अब फूफाजी को प्यास लगने ही वाली है... और यही होता भी था। निरोध, माला डी, व्हिस्पर, कॉपर टी... ऐसे कितने ही शब्द थे। जो मेरे लिए सवाल थे। कितनी ही बार बचपने में मैंने सीधे सीधे पूछ भी लिया...ये माला डी क्या होता है..। घर के बड़े ऐसे रिएक्ट करते जैसे किसी ने कुछ सुना ही ना हो। इस बात को करीब 15 साल बीत चुके हैं...मगर मैं जानता हूं...इन शब्दों का निषेध आज भी बदस्तूर जारी है। और ऐसा होना लाजिमी भी है। देश के जिस सबसे महान विश्वविद्यालय से बुद्धिजीवियों की फसल उपजती है... जहां सेक्स औऱ सेक्सुएलिटी पर बातचीत करना निषेध नहीं है....जहां देर रात तक लड़कों के हॉस्टल में लड़कियां विचरण करती रहती हैं... वहां भी जब कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई तो मानो खलबली मच गई। बात जेएनयू की है... भला वहां कंडोम वेंडिंग मशीन की क्या जरुरत थी। ये एक अलग मुद्दा हो सकता है। मगर...इतने खुले माहौल वाले जेएऩयू में भी शायद ही कोई छात्र या जरुरतमंद.. उस कंडोम वेंडिंग मशीन तक जाता हो। जब भी मैं वहां रहा, मैंने महसूस किया....वेंडिंग मशीन के बगल में लगी चाय की मशीन की ओर जाने वाले पर भी अनायास ही लोगों का ध्यान चला जाता...और तब तक वो उसे घूरते रहते..जब तक कि उन्हें इत्मीनान ना हो जाए कि वो चाय लेने गया है...कंडोम नहीं। जब जेएनयू में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं में इतनी झिझक बाकी है तो भला उस तबके की क्या हालत होगी...जिसे विरासत में ऐसी ही चीजें मिली हैं...और वो भी अपनी अगली पीढ़ी को बिल्कुल वही सही सलामत सौंप रहे हैं। यही है, हमारे समाज का वो दोमुंहापन...जहां लोग करना सब कुछ चाहते हैं..मगर उस पर बात करते हुए उनकी जुबान कांपने लगती है। चलते – चलते आपको बता दूं... कंडोम वाला रिंगटोन लगाने की हिम्मत मैं खुद भी नहीं जुटा सकता...लेकिन इतना जरुर है...अपने भाई – बहनों की मौजूदगी में अगर कंडोम का विज्ञापन आ जाए तो हर कोशिश करुंगा उनकी जिज्ञासा शांत करने की.. वो भी बात को घुमाए फिराए बिना ही।
Monday, September 22, 2008
मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...!
अगर ये लड़की उस टाइप की होती.. तो कहानी का शीर्षक कुछ और हो सकता था...लेकिन ऐसा नहीं था। वो कुछ अलग टाइप की लड़की थी.., ये बात अलग है.... आज भी गांवों और छोटे शहरों की ज्यादातर लड़कियां उसी के जैसी होती हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दो साल लड़कियों से सामान्य शिष्टाचार के बगैर ही गुजर गए..। सिविल की तैयारी फर्स्ट इयर से ही शुरु कर दी थी..लिहाजा यूनिवर्सिटी में क्लासेज अटेंड करना टाइम की बर्बादी लगता था। सब कुछ ठीक चल रहा था..लेकिन कहीं न कहीं जिंदगी में लड़की नाम की प्राणी का नहीं होना भी बेहद अखरता था। ये सब कुछ बेहद नेचुरल था। समय भागता जा रहा था, इस बीच कहीं न कहीं ये अहसास भी कुलबुला रहा था..ग्रेजुएशन करके पूरी तरह से पढ़ाई में जुट जाने के बाद लड़कियों से बातचीत तक का मौका नहीं मिलेगा। आखिरकार फिल्मों में दिखने वाली कॉलेज लाइफ की रुमानियत ने इतना मजबूर किया.. जानबूझकर मैंने थर्ड ईयर में मेडिवल हिस्ट्री की क्लासेज अटेंड करनी शुरु कीं, जिनका मैंने पहले के दो सालों में दर्शन भी नहीं किया था। और ऐसा पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत हुआ...। 18 साल की उम्र में बालिग होने का अहसास भी हिलोरें मार रहा था.. साथ ही साथ ये डर भी सता रहा था.. कॉलेज लाइफ बस यूं ही गुजर जाएगी। और मैं युवा हुए बगैर ही... सिविल की तैयारी करते करते बुजुर्गावस्था को प्राप्त हो जाउंगा। लिहाजा, मेडिवल हिस्ट्री में लड़कियों की बड़ी खेप होने की अफवाहों के बीच.....मैंने क्लास अटेंड करने शुरु कर दिए। यूं तो मैं इंग्लिश मीडियम का स्टूडेंट था। मगर लड़कियों की आबादी हिंदी मीडियम में ज्यादा होगी... इस कैलकुलेशन के हिसाब से हिंदी मीडियम में ही क्लास करना शुरु कर दिया...।
अफवाहों में दम था। क्लास में पहुंचने वाली आबादी में एक बड़ी खेप लड़कियों की थी। ये देखकर मेरा हौसला और बढ़ा। दिन चढ़ने तक बिस्तर में दुबके रहने वाला मेरे जैसा इंसान.. सुबह सुबह 7 बजे की क्लास में पहुंचने लगा। धीरे धीरे लड़कियों से भी जान पहचान बढ़ी। मगर जिस लड़की से अनायास ही बात करने का मन होता.. वो जब देखो तब किताबों में ही गोते लगाती रहती थी। कई बार तो हैरानी होती..जिस माहौल में लोग हंसी ठहाके लगा रहे होते... वो किताबों में कैसे खोई रहती। बहुत अजीब लगता..। लेकिन इसी अजीब की वजह से उससे बात करने की इच्छा प्रबल होती गई। अगले कुछ दिनों में मैंने हाय... हलो.. तक बात बढ़ाई....मगर इससे ज्यादा कोई दूसरी बात नहीं होती। इस लड़की की काया.. कुछ ऐसी थी.. कहां शुरु होती.. और कहां खत्म हो जाती.. इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। सुंदरता के बेहद फीजिकल मानदंडों पर वो कहीं भी खड़ी नहीं हो सकती थी। दिखने में बेहद सामान्य किस्म की । कद बमुश्किल 4 फुट और कुछ इंच। रंग गोरा.. लेकिन अजीब सा फीकापन लिए हुए। बाल लंबे....मगर उनमें इतना तेल...। यानि देखने में कोई भी ऐसी बात नहीं थी.. जो उस उम्र में मुझे किसी लड़की से बात करने के लिए मजबूर करे। फिर भी, उसकी चुप्पी...उसका एकाकीपन... मुझे उसकी ओर खींचता था। उस वक्त तक मेरी किसी लड़की से दोस्ती नहीं थी.. लिहाजा, एक दिन अचानक मेरे दिमाग में उससे दोस्ती करने का फितूर सवार हुआ। जबकि ना तो मैं उसकी ओर आकर्षित हो रहा था.. ना ही कोई रोमांटिक या भावनात्मक खिंचाव ही था। मेरे सपनों में आने वाली लड़कियों के मुकाबले वो कहीं नहीं ठहरती थी। फिर भी... मैं उससे दोस्ती करने पर आमादा हो गया। यूं तो किसी से दोस्ती करना बेहद सामान्य बात है.. लेकिन इस कहानी के उतार चढ़ाव के लिहाज से मैं "फितूर’’ और ‘आमादा’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं।
खैर, एक दिन मैंने उसके सामने दोस्ती का प्रस्ताव रख दिया। मैंने उससे कहा...’मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं...।’ ये सुनते ही वो परेशान हो उठी। उस दिन बिना कुछ बोले वो वहां से चली गई। अगले तीन चार दिनों तक उसका कोई अता पता नहीं चला। फिर एक दिन अचानक वो प्रगट हुई। क्लास खत्म होने के बाद उसने मुझे इशारों से बुलाया। मैं दोस्ती के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने की उम्मीद में विजयी भाव में उसके पास पहुंचा..। पर यहां तो पासा उल्टा पड़ गया था। उसने बिना लाग लपेट के साफ लहजे में कहा कि वो मेरी दोस्त नहीं बन सकती। जिस हिकारत भरे अंदाज में उसने ये बात कही.. मेरी सहज इच्छा.. मेरी जिद बन गई। मैंने एक लाइन में जानना चाहा....आखिर क्यों नहीं बन सकता मैं उसका दोस्त..। उसने कहा... वो इसका जवाब नहीं देना चाहती। मैंने फिर उसे कुरेदा.. पर वो कुछ कहे बिना ही वहां से चलती बनी। अब मुझे कुछ भी होश नहीं था, मैं क्या कर रहा हूं..। मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा। उसे ये बात बुरी लग रही थी। उसे लग रहा था, बाकी के सभी लोग उसी को देख रहे हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस से होते हुए.. वो जानबूझकर यूनिवर्सिटी रोड की ओर से निकलकर कटरा बाजार में चली गई। उसे लगा कि अब तक मैं जा चुका होउंगा..। मगर मैं अपने सवाल का जवाब मिले बिना मानने वाला नहीं था। मैं उससे एक निश्चित दूरी पर ठीक उसके पीछे ही चल रहा था। कुछ देर बाद जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वो सकपका गई...। अब उसके पास पीछा छुड़ाने का एक ही रास्ता था। वो फट से एक लेडीज टेलर की दुकान में घुस गई...। अपने आपे से बाहर निकल चुका मैं...उसके पीछे पीछे लेडीज टेलर की दुकान में घुस गया।अब तो जैसे उसका आखिरी दांव भी चूक गया था।
आखिरकार उसने मुझे एक कोने में बुलाया। और एक लगातार बोलती गई... "देखो...मैंने आज तक कभी किसी लड़के से बात तक नहीं की थी.. तुम वो पहले लड़के हो.. जिससे मैं थोड़ी बहुत बात करने लगी थी...लेकिन इसका मतलब ये नहीं है....मैं...(एक फुल स्टाप के बराबर चुप्पी).... मेरे पिताजी रेलवे में काम करते हैं.... हम लोग बिहार के रहने वाले हैं....हमारे घर में लड़कियों को पढ़ने की आजादी नहीं है... मैं घर में पहली लड़की हूं.. जिसे यूनिवर्सिटी में रेगुलर बीए करने का मौका मिला... मेरी तीन बहने हैं... और मैं उनमें सबसे बड़ी हूं....मेरे घर के लोग बहुत रुढ़िवादी हैं... हमारे घर में लड़कों से दोस्ती करने की आजादी नहीं है..... वैसे भी... मुझे इन चीजों में कोई इंटरेस्ट नहीं है... मैं तो पढ़ाई लिखाई पूरी करके....अपनी गुरुमां (कोई आध्यात्मिक गुरु) के आश्रम में चली जाऊंगी... प्लीज आइंदा से मेरा पीछा मत करना... तुम अच्छे लड़के हो... लेकिन मैं किसी से दोस्ती नहीं कर सकती... वैसे भी तुम्हें बता दूं.... मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...।" कहानी खत्म हो गई, पर उसके जेहन में कायम लड़कियों की उस कैटेगरी का पता नहीं चल पाया.. जिसमें शामिल हो जाने के भय मात्र से उसका चेहरा पीला पड़ गया था...।
Saturday, September 13, 2008
फीचर फिल्म का शेष भाग 13 साल बाद (?)
साल 199
5...। इतवार का दिन है। सुबह सुबह नींद खुलती है, और कानों में ‘आ जा आई बहार, ओ...मेरे राजकुमार.. तेरे बिन रहा ना जाए..’ टाइप का कोई गाना बिना पूछे चला आ रहा है। जो मिंकू आम दिनों में उठते – उठते ही ट्वायलेट के दर्शन करता था। आज वो ब्रश करने की बजाए सीधे टीवी रुम की ओर बढ़ जाता है। किचन में चाय बन रही है। मम्मी पिछले आधे घंटे से आवाजें लगा रही हैं... उठो बच्चों... चलो ब्रश करो... चाय बन रही है। मगर अभी तक मिंकू के अलावा दूसरे बच्चे जगे नहीं हैं मिंकू के जगने की आहट मम्मी को मिल गई है। ये बात उनके आवाज लगाने के अंदाज से जाहिर होता है..। अब मम्मी और जोर जोर से आवाज लगा रही हैं। अरे जल्दी से ब्रश करके आओ, चाय ठंडी हो रही है। मगर मिंकू पर इसका कोई असर नहीं है। वो इस कदर टीवी के सामने जम गया है, मानो उसके हटते ही प्रलय आ जाएगी। जब वो टीवी पर नजरें गड़ाए बैठा होता है, उसका मुंह भी खुल जाता है। यकीन मानिए... टीवी प्रेम का ऐसा अद्भुत नजारा अब देखने को नहीं मिल सकता। टीवी रुम में ही पापा भी मौजूद हैं। मगर आज वो अखबार में इस तरह डूबे हुए हैं, मानो महीने भर का खर्चा एक ही दिन में वसूल कर
लेंगे। मिंकू को ये दृश्य सरासर नागवार गुजरता है। उसे लगता है मानो टीवी का अपमान हो रहा है। इस बीच मम्मी चाय रख जाती हैं। पापा चाय पी भी लेते हैं। मगर मिंकू को कुछ भी होश नहीं है। एक के बाद एक सदाबहार गाने... जो हर दूसरे तीसरे हफ्ते रिपीट हो जाते हैं। अब तो उसके दिमाग में हर गाने की डीवीडी भी बन गई है। सीन आने से पहले ही उसके जेहन में वो दृश्य कौंध जाता है। खैर, रंगोली... खत्म हो जाती है। अब तक उसे कई बार डांट पड़ चुकी है ब्रश करने के लिए.... लिहाजा वो रंगोली खत्म होने के बाद एक मिनट भी देरी किए बिना ब्रश करने चला जाता है, डर है, अगर ऐसा नहीं किया तो, 9 बजे चंद्रकांता देखने पर पाबंदी ना लग जाए। लिहाजा वो अच्छा बच्चा बन जाता है। और करीब 15-20 मिनट में सारे काम निपटाकर नाश्ता भी कर लेता है। आज के दिन मिंकू सचमुच बदला हुआ है। जो मिंकू स्कूल जाने से पहले और आने के बाद बमुश्किल ही कॉ
पी किताब को हाथ लगाता है। वो इतवार के दिन जल्दी से काम निपटाकर सुबह सुबह पढ़ने बैठ जाता है। दरअसल, उसे पता है...अगर उसकी ओर से कोई लूपहोल रह गया तो उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसे मालूम है, गुड्डी और विक्की भी जग गए हैं... लिहाजा चंद्रकांता तो वो किसी भी कीमत पर देख लेगा...मगर शाम में उसे फिल्म देखने से वंचित होना पड़ सकता है। लिहाजा वो ये दिखाने में कुछ भी उठा नहीं रखता कि वो कितनी पढ़ाई कर रहा है... आम तौर पर पढ़ाई करते हुए वो अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लेता है...मगर आज तो दोनों पल्ले दो तरफ हैं। ताकि घर के लोग उसे पढ़ते हुए तो देखें ही....साथ ही साथ टीवी की भी आवाज उसे साफ सुनाई देती रहे। क्योंकि उसकी सिर्फ नजरें किताब में हैं। जेहन में तो टीवी है। इस बीच वो दूसरे कमरे में लगी घड़ी पर भी नजरे इनायत कर आता
है। जैसे ही 9 बजते हैं...उसके भीतर कुछ होने लगता है। ऐसा लगता है, दिल कुछ कहा रहा है...और दिमाग कुछ और कर रहा है। दिल बैठ रहा है... कहीं चंद्रकांता का कोई सीन छूट ना जाए...।मगर दिमाग में तो कुछ और चलरहा है। जिसके आगे वो चंद्रकांता के एकाध सीन की कुर्बानी देने को तैयार है। आखिरकार... आवाज आती है... ‘नौगढ़-विजयगढ़ में थी तकरार... नौगढ़ का था..जो राजकुमार....चंद्रकांता से करता था प्यार...’। ऐसा लगता है उसके पैर बेकाबू हो जाते हैं...और वो पहुंच ही जाता है टीवी रुम में। चंद्रकांता देखने के बाद वो अच्छे बच्चों की तरह नहा धोकर.. बिल्कुल टाइम पर खाना खा लेता है। और एक बार फिर वो अपने कमरे में दिन भर पढ़ने का नाटक करता रहता है... क्योंकि शाम पांच बजे उसे हर हाल में फिल्म देखनी है...कहीं पापा पढ़ाई नहीं करने का बहाना बनाकर उसे फिल्म देखने से रोक ना दें....। इसके लिए वो दिन भर तपस्या करता है। पांच
बजे से कुछ पहले ही...हक के साथ वो टीवी ऑन करता है। फिल्म शुरु होती है। अब मिंकू पूरी तरह टीवी में समा जाता है...कब डेढ़ घंटे निकल जाता है। उसे कोई होश नहीं होता...और सामने आ जाता है। फीचर फिल्म का शेष भाग....बजे। वो बार बार घड़ी देखता है.. कब फिर से शुरु हो पिक्चर। समाचार खत्म हो जाता है औऱ प्रचार शुरु हो जाता है। तभी अचानक एक टेक्स्ट प्लेट आती है.. फीचर फिल्म का शेष भाग थोड़ी देर में। अब वो और भी बेताब हो उठता... टीवी वालों को मन भर भला बुरा कहता है.. और पिक्चर शुरु हो...उससे ठीक पहले बिजली चली आ जाती है। और न जाने कितनी ही फिल्में हैं..जिनका शेष भाग आज 13 साल बीतने के बाद भी वो कभी नहीं देख पाया है।
Friday, September 12, 2008
क्या आपने भी खिंचवाई है कभी अपनी नंगी तस्वीर ?
इसी साल मार्च की बात है। चैनल की मारामारी के बीच बहन (बुआ की लड़की) की शादी आ पड़ी। हम भाई-बहनों की जेनरेशन में पहली शादी थी। लिहाजा बमुश्किल मिली दो दिन की छुट्टी में हैदराबाद पहुंच गया। जिस घर में शादी हो, उसका माहौल कैसा होता है... ये बताने की जरुरत नहीं। मगर अक्सर ही देखा है.. ऐसे माहौल में लड़की के पास कुछ खास काम नहीं होता। ऐसा ही कुछ यहां भी था। उम्र में मुझसे तकरीबन 3 साल छोटी बहन एक कमरे में चुपचाप पड़ी थी। सभी लोग अपने अपने काम में मशगूल.. हों भी क्यों ना... शाम में बारात जो आनी थी। ऐसे में जिसकी शादी थी... सबसे ज्यादा फुर्सत में वही था। बहन से मुलाकात सालों बाद हो रही थी। बीच में शिकायतों का कार्यक्रम चलता रहा। भैया.. आप तो भूल ही गए हैं.. आप कभी फोन भी नहीं करते... कभी हैदराबाद आइए ना। आखिरकार हैदराबाद मैं पहुंच ही गया था..। वो भी तब जब अगली ही सुबह बहन की विदाई होनी थी। लिहाजा मैंने सोचा उससे बात की जाए। अब तो ना जाने कब मुलाकात होगी। मैंने शुरुआत की। एक बार बात निकली तो मिनटों में बहुत दूर तक गई। हम बमुश्किल कुछ ही लम्हों में सालों का सफर तय कर गए। जवानी की उम्र से किशोरावस्था..और आखिर में बचपन..। यही वो वक्त था, जब हमारी मुलाकातें ज्यादा होती थीं। हम सभी भाई बहन गर्मियों की छुट्टी में गांव में जमा होते थे। फिर जो उधम चौकड़ी होती.. मजा आ जाता। बहन के साथ बातचीत करते हुए हम दोनों ही बचपन में पहुंच गए थे। तभी अचानक उसे शरारत सूझी और उसने कहा “मेरे पास आपका एक फोटो पड़ा है जो मैं भाभी (होने वाली) को दिखाऊंगी.. और जब आपके बच्चे होंगे तब उन्हें”। इतना कहकर वो जोर जोर से हंसने लगी। मैंने पूछा, भला ऐसा क्या खास है इसमें। वो कुछ भी नहीं कहती...बस जोर जोर से ठहाके लगाती। कुछ देर बाद इस बातचीत में बुआ भी शामिल हो गईं... वो भी फोटो की बात पर हंसने लगीं। देखते ही देखते छोटा भाई (बुआ का लड़का) भी बिना कुछ कहे...ठहाके लगा रहा था। लेकिन कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था... फोटो में ऐसा क्या था। बहुत मशक्कत के बाद जब फोटो सामने आई... मैं बुरी तरह झेंप गया। इसलिए भी कि.. ये फोटो शादी में जमा हुए दूसरे लोग भी उत्सुकतावश देख रहे थे। उसमें कुछ लड़कियां भी थीं। जो हमउम्र थीं। मेरी हालत ऐसी हो गई.. जैसे काटो तो खून नहीं। दरअसल ये फोटो जब खिंची गई थी..मेरी उम्र कुछ 3 या 4 साल रही होगी। इस फोटो में मैं बिल्कुल नंगा था..। यही नहीं मेरे चेहरे पर गजब की मुस्कान थी। ये फोटो मेरी होकर भी मेरी नहीं थी, फिर भी न जाने क्यों मुझे बहुत शर्म आ रही थी। निश्चित तौर पर मुझे उस वक्त समझ नहीं थी... नंगा होना शर्म की बात है। जबसे होश संभाला.. बिना तौलिया लपेटे मैं कभी नहीं नहाया। कपड़े बदलते हुए भी हमेशा ध्यान रखा.. कोई देख तो नहीं रहा है। खैर, ये तस्वीर मेरी एक बुआ ने ही खिंची थी। बेशक उस वक्त मैं झेंप जरुर रहा था.. मगर बचपन की इस तस्वीर ने मेरे भीतर एक अजीब सा उल्लास भर दिया.. और मैं अचानक ही बेहद खुश हो गया। काफी देर तक मैं उस तस्वीर को देखता रहा...। मैं सोचता रहा.. क्या मैंने उस वक्त फोटो खींचने का विरोध किया होगा। क्या मुझे ये मालूम भी होगा उस वक्त.. कि नंगा होना अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है। खैर जो भी, तस्वीर के बहाने मैं अपने बचपन में गोते लगाता रहा। ये सोचकर भी अजीब से अहसास हिलोरें मार रहे थे.. अगर ये फोटो मेरी बीवी (होने वाली) या मेरे बच्चों के हाथ लगेगी... तो उन्हें कैसा लगेगा। पर मुझे लगता है... ये वो खूबसूरत हादसा है जो हममें से ज्यादातर लोगों के साथ हुआ होगा...। सचमुच बचपन का कोई जवाब नहीं..। चलते चलते आपको ये जरुर बताना चाहूंगा... ऊपर लगी तस्वीर मेरी नहीं, इंटरनेट पर अपनी ऐसी तस्वीर डालने की हिम्मत, इस उम्र में तो मैं नहीं जुटा सकता।Thursday, September 11, 2008
ब्राह्मण परिवार का बेमिसाल इस्लाम कनेक्शन !
उसकी उम्र कुछ 65 के आस पास होगी। मुश्किल से 4 फीट की कद काठी। झुर्रियों से भरा चेहरा.. और आंखें ऐसी मानो हर सबको शक के निगाह से देखती हो। 50 साल पहले वो आई थी.. इस घर में। उसका मजहब इस्लाम है। वो पक्की मुसलमान है। मगर उसे देवी गीत से लेकर तमाम भजन जुबानी याद हैं। उसे हिंदू रीति रिवाज से होने वाले शादी विवाह के गीत भी याद हैं। चार दशक पहले उसके शौहर पर आकाशीय बिजली गिरी...और उसकी मौत हो गई। उसके चार या पांच बच्चे थे। दो बेटे और तीन बेटियां। घर परिवार में मदद करने वाला कोई नहीं था। उसका शौहर सब्जियां बेचता था। लिहाजा उसके नहीं रहने पर उसने भी यही काम शुरु किया। मगर दिक्कत ये थी... उसे जोड़ना घटाना नहीं आता था। लोग उसे भुलवाकर ज्यादा सामान ले लेते थे, और पैसे कम देते थे। वो अक्सर पास के ही गांव में सब्जी बेचने जाया करती थी। जो ब्राह्मणों का गांव था। इनमें एक घर ऐसा था..। जहां उससे लोग सबसे ज्यादा प्यार से पेश आते थे। उसे खाना भी यहां मिल जाता था। वो किसी भी बरामदे में चुपचाप सो जाती... और नींद टूटने पर चाय, पानी से लेकर खाने पीने की फरमाइश हक से करती। मानो वो इस घर की मेहमान हो। और ये घर मेरा अपना था। मेरी मां (दादी).. उसके हालात से बहुत परेशान होती.. और जब गांव में लोग उसे ठग लेते तो मां को बहुत तकलीफ होती। लिहाजा मां ने उसे बेचने खरीदने से जुड़ी तालीम देनी शुरु की। धीरे धीरे वो जोड़ना घटाना भी सीख गई। और एक वक्त ऐसा भी आया जब वो दूसरों को ही चकमा देने में उस्ताद हो गई। खैर...। मेरे बाबूजी की कुल जमा उम्र 10-12 साल रही होगी.. जबसे ये मुसलमान बेवा हमारे घर का हिस्सा बनी हुई । वो इस घर में होने वाली तमाम शुभ अशुभ घटनाओं का हिस्सा बनी है। उसने शादी-विवाह से लेकर मय्यत तक देखी है। मेरी जेनरेशन के बच्चों को तो बड़े होने पर ही पता चल पाया कि वो हमारी कोई रिश्तेदार नहीं है।नहीं तो सभी कूजड़िन आजी करते रहे। बेशक बच्चे अक्लमंद हो गए.. मगर उन्हें भी उससे बहुत लगाव है। घर में कुछ भी खाने पीने को बने तो.. हर किसी को ध्यान रहता कि कूजड़िन आजी को मिला या नहीं। अब उसके बच्चों के भी बच्चे हो चुके हैं। मगर उसकी बहुओं ने उसे घर से निकाल दिया है। 65 – 70 की उम्र में भी वो अपना पेट खुद भरती है। ये अलग बात है... उसे इसकी चिंता नहीं करनी पड़ती.. जब भी उसके पास किल्लत होती है। वो हमारे यहां डेरा डाल देती है। हालांकि पहले के मुकाबले उसका आना जाना कम ही हो पाता है। मगर वो नहीं होकर भी घऱ में होती है। छोटे से लेकर बड़े तक हर कोई उसके बारे में खोज खबर लेता रहता है। उसका जिक्र हमेशा होता रहता है। बहुत दिन हो जाने पर घर के लोगों को ये भी डर सताने लगता है कहीं वो इस दुनिया से चली तो नहीं गई। लोग परेशान होते हैं.. इसी बीच वो कहीं न कहीं से टपक पड़ती है। वो सही मायने में इस घर का हिस्सा है..। बुआ वगैरह फोन पर भी उसकी खोज खबर लेती रहती हैं। जब वो ससुराल से यहां आती हैं तो बाकी लोगों की तरह ही कुजड़िन के लिए भी कुछ ना कुछ तोहफा होता है उनके पास। बहुत अजीब है ये कहानी.. एक हार्ड कोर ब्राह्मण परिवार में एक मुसलमान महिला दशकों से ऐसे रह रही है.. जैसे वो इसी परिवार की हो। ऊपर लगी तस्वीर, कूजड़िन आजी की है। पिछली बार गांव गया था तो मैंने खींच ली थी। ब्राह्मण परिवार का ये एक ऐसा इस्लाम कनेक्शन है...जो निजी तौर पर मुझे बहुत सकून देता है।
Wednesday, September 10, 2008
9 साल के बच्चे की लव स्टोरी !
प्यार, हर किसी के लिए एक अलग अहसास है। इसकी परिभाषाएं जुदा जुदा हो सकती हैं। रिश्ते नाते संबंध और समाज की बुनावट... भला प्यार का इनसे क्या वास्ता। ये लव स्टोरी है, एक बच्चे की... जिसकी कुल जमा उम्र 9 साल थी। चौथे दर्जे में पढ़ने वाले इस बच्चे की जिंदगी में पहली बार टीवी दाखिल हुआ था। यूं तो वो पहले भी रामायण और महाभारत जैसे सीरियल्स दूसरों के घर जाकर देखा करता था। मगर ऐसा पहली बार हुआ था कि टीवी खुद उसके घर में हो। दरअसल पढ़ाई करने के लिए उसे अपनी बुआ के यहां भेज दिया गया था। जहां उसके लिए टीवी ही सबसे बड़ी उपलब्धि थी। लिहाजा अब वो सीरियल्स के साथ साथ फिल्में भी देखने लगा। ज्यादातर फिल्मों में एक लड़का और एक लड़की के बीच प्यार जैसे किस्से दिखते थे। दूसरे बच्चे इस उम्र में क्या सोचते थे.. कौन सी बातें उनके जेहन में घूमती थीं.. इसकी भनक उसे नहीं थी। मगर उसके दिलोदिमाग पर फिल्मों का असर बहुत ज्यादा पड़ा। एक अनजानी लड़की इसी उम्र में सपनों की रानी बन गई थी, जिससे वो बिल्कुल फिल्मी अंदाज में प्यार करना चाहता था। बात थोड़ी अजीब है.. मगर ये सौ फीसदी सच है। अब उसे लड़कियां फिल्मों की किरदार जैसी नजर आती थीं..। लिहाजा वो उनसे घुलमिल भी नहीं पाता था। मगर हर उस लड़की के बारे में कल्पनाएं बुनता था.. जो कभी कभार उससे प्यार से पेश आ जाती थी। शायद वो अपने उम्र के लड़कों से बड़ा हो चुका था। इसी उम्र में उसमें तमाम वो अहसास पैदा हो चुके थे... जो आम तौर पर जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए किशोरों के दिलों में जगते हैं। बुआ के यहां रहने के लिए उसे अपनी मां से दूर जाना पड़ा था..। सो कहीं न कहीं ये कमी भी.. उसे ऐसे सपनों में डूबने उतराने के लिए जिम्मेदार रही। कोई लड़की उसे कुछ खाने को देती..कोई लड़की उससे कॉपी मांग लेती... या फिर कोई लड़की उससे कुछ देर बात भी कर लेती तो उस दिन के बाद वो उसकी जूलिएट बन जाती। दिन रात खयालों में बस उसी का चेहरा। यहां तक कि फिल्में देखते वक्त.. हिरोइन की जगह उसका ही चेहरा दिखता। उस बच्चे के स्कूल में उसकी बुआ की रिश्ते की ननद भी पढ़ती थी.. वो भी उसी की क्लास में। जाहिर है, उसकी उम्र भी कुछ वही रही होगी। घर आस पास थे। लिहाजा उसकी पहली महिला मित्र वही लड़की बनी। स्कूल में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा था... एक दूसरे के घर भी आने जाने लगे। खेलकूद से लेकर मारपीट तक हर जगह वो साथ थे। 9 साल के उस बच्चे की कोरी कल्पनाओं में रंग सा भर गया था.. उसकी कल्पनाओं की प्रेमिका उसे मिल गई थी। फिल्म ठीक ठाक चल रही थी, तभी एक दिन विलेन की एंट्री हुई। दरअसल उसके फूफाजी का ट्रांसफर हो गया। और अब उन्हें कहीं और जाना था। उसके अलावा उस परिवार के बाकी सारे लोग खुश थे। नए और अपेक्षाकृत बड़े शहर में रहने की हसरतें हिलोरें मार रही थीं...। मगर वो बच्चा बेहद उदास हो गया। उसे बाकी कोई चिंता नहीं थी... परेशानी थी तो बस ये वो अपनी प्यारी दोस्त से दूर हो जाएगा। वो छिप छिपकर रोता था। गुमशुम रहता था, मगर किसी से कहे तो क्या कहे। शायद वो अपनी उम्र से कोसों दूर निकल चुका था। उसके अहसास इसी उम्र में जवान हो चुके थे। आखिरकार एक दिन सारा सामान बांधकर.. । उस शहर से जाना पड़ा। और हमेशा के लिए उसका पहला प्यार अधूरा रह गया। ऐसा नहीं वो उस लड़की से दोबारा नहीं मिला... मिला मगर सालों बाद जब वो बड़ा हो चुका था। और अबकी बार वो तमाम अहसास कहीं नहीं थे। क्योंकि बड़े होने के साथ साथ वो दुनिया की तमाम हकीकतों से वाकिफ हो चुका था। दरअसल, ये लव स्टोरी 9 साल के लड़के की थी। जो जानता तक नहीं था.. कि रिश्ते की बुआ के साथ भी ऐसे सपने बुने नहीं जा सकते..। यूं तो ये मेरी अपनी ही कहानी है। मगर अब महसूस नहीं होता..क्या वो मैं ही था,या कोई और...? Tuesday, September 9, 2008
जब 3 रुपए में बेची अपनी ईमानदारी !
Sunday, September 7, 2008
आखिर क्यों नहीं हो पाती एंकर्स से दोस्ती ?
न्यूज एंकर.. यानि चेहरा किसी भी चैनल का। एक ऐसा शख्स जिसे हर हाल में खबर पढ़नी है.. बेशक टेली प्रांप्टर काम करना बंद कर दे। या फिर, टीवी स्क्रीन पर विजुउल्स फ्रीज हो जाएं...वो चुप नहीं हो सकता...उसके पास कोई एक्स्क्यूज नहीं हो सकता। स्टार न्यूज में तकरीबन पौने दो साल काम करते हुए.. गिने चुने एंकर्स से ही मेरी बात होती थी..। कुछ से इसलिए कि अभी वो बड़े एंकर नहीं हो पाए थे.. तो कुछ से इसलिए कि मेरा शो उनको ही करना था। यानि कुल मिलाकर ये एक किस्म की आपसी मजबूरी का नतीजा था। बाकी के तमाम एंकर्स ऐसे भी थे.. जिनसे जान पहचान तक नहीं हो पाई...। वजहें तमाम थीं, मसलन बड़े चैनल का बड़ा एंकर.. किसी को बस यूं ही मुंह नहीं लगाना चाहता। दूसरी वजह ये कि खुद को जर्नलिस्ट मानने वाले मेरे जैसे डेस्क के कारिंदों की एंकर्स के बारे में धारणा। मसलन एंकर करता ही क्या है.. उसे तो बस पका पकाया मिल जाता है...जान तो उनकी जाती है जिन्हें टीवी पर दिखने का सुख नसीब तक नहीं होता। खैर, नए संस्थान में आकर ये गलतफहमी काफी कुछ दूर हो गई है। इसके अलावा एक बड़ी वजह ये थी..कि एंकर्स की बिरादरी में महिलाओं की तादाद भी अच्छी खासी होती है। स्टार न्यूज भी इसका एक्सेप्शन नहीं था...। अब एक तो महिला..ऊपर से खूबसूरत.. उस पर भी जलवा ये कि मैडम को करोड़ों लोग टीवी पर निहारते हैं। ऐसे में दिमाग सातवें आसमान पर न पहुंचे.. ऐसे एकाध ही उदाहरण मेरे सामने थे। लिहाजा मेरी ठसक भी एंकर्स से मेल जोल के आड़े आई। और इसका खामियाजा ये हुआ कि मैं चैनल में काम करने वाले उस एलीट क्लास का हिस्सा नहीं बन पाया.. जो न केवल एंकर्स (महिला) से हंसी मजाक करते थे.. बल्कि फ्लर्टिंग तक की रियायत का मजा उठाते थे। जिस वक्त वो एंकर्स से बातचीत कर रहे होते थे...खुशी और अहंकार से फूलकर उनका सीना बाहर को निकल आता। और इस सुख से वंचित लोग उन्हें ऐसे देखते जैसे...छप्पन भोग का मजा लेने वाले को कोई भूख से बिलबिलाता इंसान देखता है। एक खास बात और ये.. कि डेस्क या रिपोर्टिंग में ज्वाइन करने वाला कोई भी जूनियर हर वक्त यही जानने की ताक में रहता कि फलाना एंकर की तनख्वाह कितनी है। ले देकर एंकर्स का अपना ही जलवा होता है..। ट्रेनी से लेकर चैनल के सीईओ तक को उनसे बात करते हुए एक अलग ही किस्म का अहंकारबोध होता है, जैसे एंकर किसी और ही ग्रह से धरती पर उतरे हों..। रनडाउन पर बैठने वाले प्रोड्यूसर बिरादरी के लोग कई बार उनका जलवा हजम नहीं कर पाते हैं.. लिहाजा किसी ना किसी बहाने उन्हें हड़काने का मौका कोई चूकता नहीं। मगर ये बात बड़े चैनल या छोटे चैनल के निरीह छोटे एंकर्स पर ही लागू होती है। बड़े एंकर्स तो हमेशा बड़े होते हैं.. वो छोटे चैनल में हों या फिर बड़े चैनल में। बड़ा एंकर होने का मतलब ये कतई नहीं है.. कि साहब बहुत काबिल हैं। ज्यादातर बड़े एंकर इसलिए बड़े होते हैं क्योंकि वो बड़ी से बड़ी गलती करने के बाद भी आन एयर सहज रहते हैं। जबकि छोटा एंकर हड़बड़ाकर सॉरी बोल ही पड़ता है। और बॉसेज को पता चल जाता है कि फलाना बहुत गलती करता है..। लेकिन एक बात तो तय है.. एंकर छोटे चैनल का हो.. या फिर बड़े चैनल का। उसके जेहन में ये हमेशा घूमता रहता है.. वो अलग है.. कुछ खास है। बेशक उसे ठसमठस्स भरी बस में ही सफर क्यों ना करना पड़ता हो...। उसे वही सड़ा हुआ कैंटीन का खाना क्यों ना खाना पड़ता हो...उसे ड्रॉपिंग के लिए घंटों इंतजार क्यों ना करना पड़ता हो.. भला वो खुद को आम क्यों समझ ले... उसके नाम पर तो आर्कुट जैसी कम्यूनिटी वेबसाइट्स पर फैन्स क्लब तक बने होते हैं। कुछेक एंकर्स को मैं जानता हूं.. जिनके लिए बकायदा लड़कियों की चिठ्ठियां तक आती हैं...,जिसमें वो अपना कलेजा ही निकालकर रख देती हैं। अगर आप गौर करें तो दर्जनों न्यूज चैनल पर हर रोज पचासों एंकर दिखते हैं.. मगर नाम से जिन्हें लोग पहचानते हैं.. उनमें विनोद दुआ, दिबांग, पुण्यप्रसून वाजपेयी, अजय कुमार, दीपक चौरसिया, करन थापर और अलका सक्सेना जैसे एंकर्स अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं...। मगर शोहरत की वर्चुअल दुनिया में टहलने वाले ज्यादातर एंकर इस बात को महसूस नहीं कर पाते..शायद यही वजह है एक ही संस्थान में काम करने वाले लोग बिल्कुल उतने ही दूर होते हैं.. जितना कि हजारों मील दूर बैठा वो दर्शक जिसे ये वहम होता है.. कि एंकर को सारी खबरें याद होती हैं.. और वो खटाखट बोलता जाता है....। हो सकता है, दूसरों के तजुर्बे अलग हों.. मगर मैं आज तक नहीं समझ पाया.. आखिर क्यों नहीं हो पाती एंकर्स से दोस्ती ?




