
Tuesday, September 23, 2008
क्या आप लगाएंगे अपने फोन में कंडोम वाला रिंगटोन ?
जी नहीं, ये सवाल कतई नहीं
है। दरअसल ये एक खुली चुनौती है। सिर्फ आपको नहीं...आप जैसे किसी भी शख्स को। अगर मामला नहीं जानते, तो आपको बता दूं। हाल ही में एड्स के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए NACO ने एक कंडोम वाला रिंगटोन जारी किया है। अगर आप ये रिंगटोन अपने फोन में लगा लें...और कोई फोन आए तो आपके फोन में कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम...कंडोम बजने लगेगा..। लेकिन मैं जानता हूं, आपकी हिम्मत नहीं है, आप ये रिंगटोन लगा लें...जबकि ये रिंगटोन बिल्कुल मुफ्त है। जिस देश में हम और आप रह रहे हैं... वहां शायद आज से 50 साल बाद भी ऐसा रिंगटोन लगाने की हिम्मत जुटाना बड़ा काम होगा। कितना वक्त बीत गया। टीवी की ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया रंगीन हो गई। मगर शायद ही कोई मां बाप हों.. जो कंडोम और सैनिटरी नैपकिन का विज्ञापन आते वक्त चैनल ना बदल देते हों। आप खुद ही सोचकर देखिए.. क्या आपने कभी अपने बेटे, बेटी या भाई-बहन को ये बताने की कोशिश की है..आखिर ये निरोध क्या बला है। बचपन में ना जाने कितनी ही बार मेरे जेहन में ये सवाल उठा कि बारिश में छाता लगाकर लड़का-लड़की जा रहे होते हैं... और अचानक गाना बजने लगता है.. प्यार हुआ..इकरार हुआ.. प्यार से फिर क्यों डरता है दिल...इस बीच फूफाजी अक्सर मुझे पानी लाने के लिए भेज देते हैं। जब ऐसा बार बार होने लगा तो मैं इस एड से एक तरह की नफरत करने लगा। हालत ये हो गई थी, ज्यों ये गाना आता... मुझे समझ में आ जाता कि अब फूफाजी को प्यास लगने ही वाली है... और यही होता भी था। निरोध, माला डी, व्हिस्पर, कॉपर टी... ऐसे कितने ही शब्द थे। जो मेरे लिए सवाल थे। कितनी ही बार बचपने में मैंने सीधे सीधे पूछ भी लिया...ये माला डी क्या होता है..। घर के बड़े ऐसे रिएक्ट करते जैसे किसी ने कुछ सुना ही ना हो। इस बात को करीब 15 साल बीत चुके हैं...मगर मैं जानता हूं...इन शब्दों का निषेध आज भी बदस्तूर जारी है। और ऐसा होना लाजिमी भी है। देश के जिस सबसे महान विश्वविद्यालय से बुद्धिजीवियों की फसल उपजती है... जहां सेक्स औऱ सेक्सुएलिटी पर बातचीत करना निषेध नहीं है....जहां देर रात तक लड़कों के हॉस्टल में लड़कियां विचरण करती रहती हैं... वहां भी जब कंडोम वेंडिंग मशीन लगाई गई तो मानो खलबली मच गई। बात जेएनयू की है... भला वहां कंडोम वेंडिंग मशीन की क्या जरुरत थी। ये एक अलग मुद्दा हो सकता है। मगर...इतने खुले माहौल वाले जेएऩयू में भी शायद ही कोई छात्र या जरुरतमंद.. उस कंडोम वेंडिंग मशीन तक जाता हो। जब भी मैं वहां रहा, मैंने महसूस किया....वेंडिंग मशीन के बगल में लगी चाय की मशीन की ओर जाने वाले पर भी अनायास ही लोगों का ध्यान चला जाता...और तब तक वो उसे घूरते रहते..जब तक कि उन्हें इत्मीनान ना हो जाए कि वो चाय लेने गया है...कंडोम नहीं। जब जेएनयू में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं में इतनी झिझक बाकी है तो भला उस तबके की क्या हालत होगी...जिसे विरासत में ऐसी ही चीजें मिली हैं...और वो भी अपनी अगली पीढ़ी को बिल्कुल वही सही सलामत सौंप रहे हैं। यही है, हमारे समाज का वो दोमुंहापन...जहां लोग करना सब कुछ चाहते हैं..मगर उस पर बात करते हुए उनकी जुबान कांपने लगती है। चलते – चलते आपको बता दूं... कंडोम वाला रिंगटोन लगाने की हिम्मत मैं खुद भी नहीं जुटा सकता...लेकिन इतना जरुर है...अपने भाई – बहनों की मौजूदगी में अगर कंडोम का विज्ञापन आ जाए तो हर कोशिश करुंगा उनकी जिज्ञासा शांत करने की.. वो भी बात को घुमाए फिराए बिना ही।

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4 comments:
बात तो सही कह रहे हो बंधु!!
आपने अच्छे सवाल खड़े किए है
आम भारतीय आदमी का जवाब सुनना चाहते हैं तो ये ही सवाल ख़ुद से करके देखिये जवाब आपको सहर्ष मिलेगा तुंरत मिलेगा
वीनस केसरी
हर कोशिश करुंगा उनकी जिज्ञासा शांत करने की..... ठिक हे .धन्यवाद
jaki rahi bhavna jaisi ,
prabhu murati dekhahin tin taisi !
dhanyabad
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