Monday, September 22, 2008

मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...!



अगर ये लड़की उस टाइप की होती.. तो कहानी का शीर्षक कुछ और हो सकता था...लेकिन ऐसा नहीं था। वो कुछ अलग टाइप की लड़की थी.., ये बात अलग है.... आज भी गांवों और छोटे शहरों की ज्यादातर लड़कियां उसी के जैसी होती हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दो साल लड़कियों से सामान्य शिष्टाचार के बगैर ही गुजर गए..। सिविल की तैयारी फर्स्ट इयर से ही शुरु कर दी थी..लिहाजा यूनिवर्सिटी में क्लासेज अटेंड करना टाइम की बर्बादी लगता था। सब कुछ ठीक चल रहा था..लेकिन कहीं न कहीं जिंदगी में लड़की नाम की प्राणी का नहीं होना भी बेहद अखरता था। ये सब कुछ बेहद नेचुरल था। समय भागता जा रहा था, इस बीच कहीं न कहीं ये अहसास भी कुलबुला रहा था..ग्रेजुएशन करके पूरी तरह से पढ़ाई में जुट जाने के बाद लड़कियों से बातचीत तक का मौका नहीं मिलेगा। आखिरकार फिल्मों में दिखने वाली कॉलेज लाइफ की रुमानियत ने इतना मजबूर किया.. जानबूझकर मैंने थर्ड ईयर में मेडिवल हिस्ट्री की क्लासेज अटेंड करनी शुरु कीं, जिनका मैंने पहले के दो सालों में दर्शन भी नहीं किया था। और ऐसा पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत हुआ...। 18 साल की उम्र में बालिग होने का अहसास भी हिलोरें मार रहा था.. साथ ही साथ ये डर भी सता रहा था.. कॉलेज लाइफ बस यूं ही गुजर जाएगी। और मैं युवा हुए बगैर ही... सिविल की तैयारी करते करते बुजुर्गावस्था को प्राप्त हो जाउंगा। लिहाजा, मेडिवल हिस्ट्री में लड़कियों की बड़ी खेप होने की अफवाहों के बीच.....मैंने क्लास अटेंड करने शुरु कर दिए। यूं तो मैं इंग्लिश मीडियम का स्टूडेंट था। मगर लड़कियों की आबादी हिंदी मीडियम में ज्यादा होगी... इस कैलकुलेशन के हिसाब से हिंदी मीडियम में ही क्लास करना शुरु कर दिया...।
अफवाहों में दम था। क्लास में पहुंचने वाली आबादी में एक बड़ी खेप लड़कियों की थी। ये देखकर मेरा हौसला और बढ़ा। दिन चढ़ने तक बिस्तर में दुबके रहने वाला मेरे जैसा इंसान.. सुबह सुबह 7 बजे की क्लास में पहुंचने लगा। धीरे धीरे लड़कियों से भी जान पहचान बढ़ी। मगर जिस लड़की से अनायास ही बात करने का मन होता.. वो जब देखो तब किताबों में ही गोते लगाती रहती थी। कई बार तो हैरानी होती..जिस माहौल में लोग हंसी ठहाके लगा रहे होते... वो किताबों में कैसे खोई रहती। बहुत अजीब लगता..। लेकिन इसी अजीब की वजह से उससे बात करने की इच्छा प्रबल होती गई। अगले कुछ दिनों में मैंने हाय... हलो.. तक बात बढ़ाई....मगर इससे ज्यादा कोई दूसरी बात नहीं होती। इस लड़की की काया.. कुछ ऐसी थी.. कहां शुरु होती.. और कहां खत्म हो जाती.. इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। सुंदरता के बेहद फीजिकल मानदंडों पर वो कहीं भी खड़ी नहीं हो सकती थी। दिखने में बेहद सामान्य किस्म की । कद बमुश्किल 4 फुट और कुछ इंच। रंग गोरा.. लेकिन अजीब सा फीकापन लिए हुए। बाल लंबे....मगर उनमें इतना तेल...। यानि देखने में कोई भी ऐसी बात नहीं थी.. जो उस उम्र में मुझे किसी लड़की से बात करने के लिए मजबूर करे। फिर भी, उसकी चुप्पी...उसका एकाकीपन... मुझे उसकी ओर खींचता था। उस वक्त तक मेरी किसी लड़की से दोस्ती नहीं थी.. लिहाजा, एक दिन अचानक मेरे दिमाग में उससे दोस्ती करने का फितूर सवार हुआ। जबकि ना तो मैं उसकी ओर आकर्षित हो रहा था.. ना ही कोई रोमांटिक या भावनात्मक खिंचाव ही था। मेरे सपनों में आने वाली लड़कियों के मुकाबले वो कहीं नहीं ठहरती थी। फिर भी... मैं उससे दोस्ती करने पर आमादा हो गया। यूं तो किसी से दोस्ती करना बेहद सामान्य बात है.. लेकिन इस कहानी के उतार चढ़ाव के लिहाज से मैं "फितूर’’ और ‘आमादा’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं।
खैर, एक दिन मैंने उसके सामने दोस्ती का प्रस्ताव रख दिया। मैंने उससे कहा...’मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं...।’ ये सुनते ही वो परेशान हो उठी। उस दिन बिना कुछ बोले वो वहां से चली गई। अगले तीन चार दिनों तक उसका कोई अता पता नहीं चला। फिर एक दिन अचानक वो प्रगट हुई। क्लास खत्म होने के बाद उसने मुझे इशारों से बुलाया। मैं दोस्ती के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने की उम्मीद में विजयी भाव में उसके पास पहुंचा..। पर यहां तो पासा उल्टा पड़ गया था। उसने बिना लाग लपेट के साफ लहजे में कहा कि वो मेरी दोस्त नहीं बन सकती। जिस हिकारत भरे अंदाज में उसने ये बात कही.. मेरी सहज इच्छा.. मेरी जिद बन गई। मैंने एक लाइन में जानना चाहा....आखिर क्यों नहीं बन सकता मैं उसका दोस्त..। उसने कहा... वो इसका जवाब नहीं देना चाहती। मैंने फिर उसे कुरेदा.. पर वो कुछ कहे बिना ही वहां से चलती बनी। अब मुझे कुछ भी होश नहीं था, मैं क्या कर रहा हूं..। मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा। उसे ये बात बुरी लग रही थी। उसे लग रहा था, बाकी के सभी लोग उसी को देख रहे हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस से होते हुए.. वो जानबूझकर यूनिवर्सिटी रोड की ओर से निकलकर कटरा बाजार में चली गई। उसे लगा कि अब तक मैं जा चुका होउंगा..। मगर मैं अपने सवाल का जवाब मिले बिना मानने वाला नहीं था। मैं उससे एक निश्चित दूरी पर ठीक उसके पीछे ही चल रहा था। कुछ देर बाद जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वो सकपका गई...। अब उसके पास पीछा छुड़ाने का एक ही रास्ता था। वो फट से एक लेडीज टेलर की दुकान में घुस गई...। अपने आपे से बाहर निकल चुका मैं...उसके पीछे पीछे लेडीज टेलर की दुकान में घुस गया।अब तो जैसे उसका आखिरी दांव भी चूक गया था।
आखिरकार उसने मुझे एक कोने में बुलाया। और एक लगातार बोलती गई... "देखो...मैंने आज तक कभी किसी लड़के से बात तक नहीं की थी.. तुम वो पहले लड़के हो.. जिससे मैं थोड़ी बहुत बात करने लगी थी...लेकिन इसका मतलब ये नहीं है....मैं...(एक फुल स्टाप के बराबर चुप्पी).... मेरे पिताजी रेलवे में काम करते हैं.... हम लोग बिहार के रहने वाले हैं....हमारे घर में लड़कियों को पढ़ने की आजादी नहीं है... मैं घर में पहली लड़की हूं.. जिसे यूनिवर्सिटी में रेगुलर बीए करने का मौका मिला... मेरी तीन बहने हैं... और मैं उनमें सबसे बड़ी हूं....मेरे घर के लोग बहुत रुढ़िवादी हैं... हमारे घर में लड़कों से दोस्ती करने की आजादी नहीं है..... वैसे भी... मुझे इन चीजों में कोई इंटरेस्ट नहीं है... मैं तो पढ़ाई लिखाई पूरी करके....अपनी गुरुमां (कोई आध्यात्मिक गुरु) के आश्रम में चली जाऊंगी... प्लीज आइंदा से मेरा पीछा मत करना... तुम अच्छे लड़के हो... लेकिन मैं किसी से दोस्ती नहीं कर सकती... वैसे भी तुम्हें बता दूं.... मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं...।" कहानी खत्म हो गई, पर उसके जेहन में कायम लड़कियों की उस कैटेगरी का पता नहीं चल पाया.. जिसमें शामिल हो जाने के भय मात्र से उसका चेहरा पीला पड़ गया था...।

11 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी कहानी है।

राज भाटिय़ा said...

होती हे ऎसी शरीफ़ लड्कियां भीम मै तो समझा था यह भी नारी को आजादी दिलाने वाली होगी, लेकिन धन्यवाद, आप ने एक भारतीया लडकी से मिलवाया
बहुत ही सुन्दर कहानी ओर आप ने भी बेबाक सच लिख दिया

सचिन मिश्रा said...

Bahut accha likha hai.

Udan Tashtari said...

बढ़िया कहानी है. अफवाहों में भी कभी कभी दम होता है, मित्र.

pallavi trivedi said...

rochak prasang...

कुश said...

hmm! sochne layak baat hai.. us type ki ladkiya kaisi hoti hogi..?

sushant jha said...

!!!

manish said...

अच्छी कहानी आपने लिखी है...भारतीय नारी की कहानी आपने काफी काबिले-ए तारीफ़ ढंग से इस
इलेक्टॉनिक पन्ने पर चित्रित किया है..
मनीष शांडिल्य ज़ी न्यूज़

Unknown said...

अरे भइया हम भी इस बरस इलाहाबाद विश्वविद्यालय मेँ द्वितीय वर्ष के कला स्नातिकी के छात्र हैँ और हमारे मन मेँ भी महिलाओँ से मित्रता की बड़ी आकांक्षा है ।

Unknown said...

आगे की भी कहानी बताइये कि क्या आपने पुनः किसी महिला से मित्रता की चेष्टा की ?

Unknown said...

बताइयेगा जरुर भइया , हम अति उत्सुक हैँ ..